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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 25/ मन्त्र 1
अश्रा॑न्तस्य त्वा॒ मन॑सा यु॒नज्मि॑ प्रथ॒मस्य॑ च। उत्कू॑लमुद्व॒हो भ॑वो॒दुह्य॒ प्रति॑ धावतात् ॥
स्वर सहित पद पाठअश्रा॑न्तस्य। त्वा॒। मन॑सा। यु॒नज्मि॑। प्र॒थ॒मस्य॑। च॒। उत्ऽकू॑लम्। उ॒त्ऽव॒हः। भ॒व॒। उ॒त्ऽउह्य॑। प्रति॑। धा॒व॒ता॒त् ॥२५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्रान्तस्य त्वा मनसा युनज्मि प्रथमस्य च। उत्कूलमुद्वहो भवोदुह्य प्रति धावतात् ॥
स्वर रहित पद पाठअश्रान्तस्य। त्वा। मनसा। युनज्मि। प्रथमस्य। च। उत्ऽकूलम्। उत्ऽवहः। भव। उत्ऽउह्य। प्रति। धावतात् ॥२५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 25; मन्त्र » 1
विषय - वाजी
पदार्थ -
१. मार्ग पर बढ़ता हुआ व्यक्ति लक्ष्य-स्थान पर पहुँचता ही है, अतः प्रभु कहते हैं कि हे जीव ! (त्वा) = तुझे उस पुरुष के (मनसा) = मन से (युनज्मि) = युक्त करता हूँ जोकि (अश्रान्तस्य) = कभी थकता नहीं-ऊब नहीं जाता-मार्ग पर बढ़ता ही चलता है, (च) = और अतएव (प्रथमस्य) = प्रथम स्थान में स्थित होता है। प्रथम स्थान में स्थित होने के संकल्पवाले पुरुष के मन से मैं तुझे जोड़ता हूँ। तू अश्रान्तभाव से आगे बढ़ता ही चल। २. (उत्कूलम् उद्धहः) = जैसे नदी किनारों को भी लांघकर उमड़ पड़ती है, उसी प्रकार तू सब विघ्नों को-रुकावटों को लाँधकर ऊपर उठनेवाला (भव) = हो। (उदुह्य) = अपने को सब विघ्न-बाधाओं से ऊपर उठाकर प्रति (धावतात्) = तू लक्ष्य स्थान की ओर वेग से बढ़नेवाला हो।
भावार्थ - हम अनान्त मन से प्रथम स्थान पर पहुँचने के लिए आगे बढ़ते चलें। सब विघ्नों को पार करके लक्ष्य स्थान की ओर बढ़ें। किसी भी विघ्न-बाधा से न रुकनेवाला 'अथर्वा' अगले सूक्त का ऋषि है -
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