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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 26/ मन्त्र 3
सूक्त - अथर्वा
देवता - अग्निः, हिरण्यम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - हिरण्यधारण सूक्त
आयु॑षे त्वा॒ वर्च॑से॒ त्वौज॑से च॒ बला॑य च। यथा॑ हिरण्य॒तेज॑सा वि॒भासा॑सि॒ जनाँ॒ अनु॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआयु॑षे। त्वा॒। वर्च॑सा। त्वा॒। ओज॑से। च॒। बला॑य। च॒। यथा॑। हि॒र॒ण्य॒ऽतेज॑सा। वि॒ऽभासा॑सि। जना॑न्। अनु॑ ॥२६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आयुषे त्वा वर्चसे त्वौजसे च बलाय च। यथा हिरण्यतेजसा विभासासि जनाँ अनु ॥
स्वर रहित पद पाठआयुषे। त्वा। वर्चसा। त्वा। ओजसे। च। बलाय। च। यथा। हिरण्यऽतेजसा। विऽभासासि। जनान्। अनु ॥२६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 26; मन्त्र » 3
विषय - आयु-वर्चस्-ओजस्-बल
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित हिरण्य [वीर्य] (त्वा) = तुझे (आयुषे) = दीर्घजीवन के लिए प्राप्त कराए (च) = और (वर्चसे) = वर्चस् के लिए प्राप्त कराए। इस वर्चस् द्वारा ही नीरोग व दीर्घजीवन प्रास होगा। यह हिरण्य (त्वा) = तुझे (ओजसे) = ओज के लिए (च) = तथा (बलाय) = बल के लिए प्राप्त कराए। ओज मन की वह शक्ति हैं जोकि अच्छाइयों का वर्धन करती है और बल बुराइयों का विनाश करनेवाली शक्ति है। २. तू (यथा हिरण्यतेजसा) = इस हिरण्य के तेज के अनुपात में-जितना जितना वीर्य का रक्षण करता है उतना-उतना, (जनान् अनु विभासासि) = जनों का लक्ष्य करके तू दीतिवाला होता है-मनुष्यों में तू चमक उठता है। सुरक्षित वीर्य सब शक्तियों को बढ़ाता है और हमारी श्री की वृद्धि का कारण बनता है।
भावार्थ - वीर्यरक्षण द्वारा हम 'आयु, वर्चस, ओज व बल' को प्राप्त करें। यह हमें समाज में दीप्त जीवनवाला बनाए।
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