अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिड सूक्त
इन्द्र॑स्य॒ नाम॑ गृ॒ह्णन्त॒ ऋष॑यो जङ्गि॒डं द॑दुः। दे॒वा यं च॒क्रुर्भे॑ष॒जमग्रे॑ विष्कन्ध॒दूष॑णम् ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑स्य। नाम॑। गृ॒ह्णन्तः॑। ऋष॑यः। ज॒ङ्गि॒डम्। द॒दुः॒। दे॒वाः। यम्। च॒क्रुः। भे॒ष॒जम्। अग्रे॑। वि॒स्क॒न्ध॒ऽदूष॑णम् ॥३५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रस्य नाम गृह्णन्त ऋषयो जङ्गिडं ददुः। देवा यं चक्रुर्भेषजमग्रे विष्कन्धदूषणम् ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रस्य। नाम। गृह्णन्तः। ऋषयः। जङ्गिडम्। ददुः। देवाः। यम्। चक्रुः। भेषजम्। अग्रे। विस्कन्धऽदूषणम् ॥३५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
विषय - विष्कन्ध दूषण
पदार्थ -
१. (इन्द्रस्य नाम गृहन्त:) = शत्रु-विद्रावक प्रभु के नाम का ग्रहण करते हुए-नाम का उच्चारण करते हुए (ऋषयः) = तत्त्वदर्शी ज्ञानी पुरुषों ने (जङ्गिडम्) = रोगबाधन के लिए शरीर में भृशंगति करनेवाली वीर्यमणि को (ददु:) = [to restore, to return] शरीर में ही फिर स्थापित किया है। विषय-विलास में इसे नष्ट नहीं होने दिया। २. (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (यम्) = जिस जंगिडमणि को (अग्रे) = सर्वप्रथम (विष्कन्धदूषणम्) = अंगों को तोड़नेवाले वातरोग को नष्ट करनेवाला भेषजं (चक्रुः) = औषध बनाया है।
भावार्थ - तत्त्वदर्शी ज्ञानी प्रभु-स्मरणपूर्वक वीर्यरक्षण के लिए यत्नशील होते हैं। देववृत्ति के पुरुष इस वीयरक्षण को ही विष्कन्ध आदि रोगों का शामक बताते हैं।
इस भाष्य को एडिट करें