अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
आश॑रीकं॒ विश॑रीकं ब॒लासं॑ पृष्ट्याम॒यम्। त॒क्मानं॑ वि॒श्वशा॑रदमर॒सान् ज॑ङ्गि॒डस्क॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठआऽश॑रीकम्। विऽश॑रीकम्। ब॒लास॑म्। पृ॒ष्टि॒ऽआ॒म॒यम्। त॒क्मान॑म्। वि॒श्वऽशा॑रदम्। अ॒र॒सान्। ज॒ङ्गि॒डः। क॒र॒त् ॥३४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
आशरीकं विशरीकं बलासं पृष्ट्यामयम्। तक्मानं विश्वशारदमरसान् जङ्गिडस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽशरीकम्। विऽशरीकम्। बलासम्। पृष्टिऽआमयम्। तक्मानम्। विश्वऽशारदम्। अरसान्। जङ्गिडः। करत् ॥३४.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
विषय - 'बलास पृष्टयामय' विनाश
पदार्थ -
१. (आशरीकम्) = शरीर को सर्वत: हिसित करनेवाले, (विशरीकम्) = विशेषरूप से शरीर को तोड़नेवाले, (बलासम्) = बल को दूर फेंकनेवाले कफ आदि रोग को, (पृष्टयामयम्) = पसली व छाती की पीड़ा को, (तक्मानम्) = शरीर को कष्टमय बनानेवाले ज्वर को तथा (विश्वशारदम्) = सब शरीर में चकत्ते-ही-चकत्ते कर देनेवाले रोग को (जङ्गिडः) = यह वीर्यमणि (अरसान्) = निष्प्रभाव (करत्) = कर दे।
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित वीर्य 'वात-पित-कफ़' जनित सब विकारों को दूर करता है।
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