अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 2
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
या गृत्स्य॑स्त्रिपञ्चा॒शीः श॒तं कृ॑त्या॒कृत॑श्च॒ ये। सर्वा॑न्विनक्तु॒ तेज॑सोऽर॒सान् ज॑ङ्गि॒डस्क॑रत् ॥
स्वर सहित पद पाठयाः। गृत्स्यः॑। त्रि॒ऽप॒ञ्चा॒शीः। श॒तम्। कृ॒त्या॒ऽकृतः॑। च॒। ये। सर्वा॑न्। वि॒न॒क्तु॒। तेज॑सः। अ॒र॒सान्। ज॒ङ्गि॒डः। क॒र॒त् ॥३४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
या गृत्स्यस्त्रिपञ्चाशीः शतं कृत्याकृतश्च ये। सर्वान्विनक्तु तेजसोऽरसान् जङ्गिडस्करत् ॥
स्वर रहित पद पाठयाः। गृत्स्यः। त्रिऽपञ्चाशीः। शतम्। कृत्याऽकृतः। च। ये। सर्वान्। विनक्तु। तेजसः। अरसान्। जङ्गिडः। करत् ॥३४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 2
विषय - 'रोग-शक्ति' क्षय
पदार्थ -
१. (या:) = जो (त्रिपञ्चाशी:) = 'त्रि' तीनों-शरीर, मन और बुद्धि तथा 'पञ्च'-पाँचों कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों व पाँचों प्राणों की शक्ति को ('आशी:') = खा जानेवाली (गृत्स्य:) = [गृधू अभिकांक्षायाम्] खाने या पीने की प्रबल कामनावाली पीड़ाएँ हैं, [जैसे भस्मक रोग में] (च) = तथा (ये) = जो (शतम्) = सैकड़ों (कृत्याकृतः) = छेदन-भेदन करनेवाली व्याधियाँ हैं, उन (सर्वान्) = सबको (जङ्गिड:) = यह शरीर में शत्रुबाधन के लिए गतिवाली वीर्यशक्ति (तेजसः विनक्तु) = तेज से पृथक् करे। उनके प्रभाव को हीन कर दे। २. यह जंगिडमणि उनको (अरसान् करत्) = रसरहित-निर्बलकर दे। इस वीर्यशक्ति के कारण उन बिमारियों का प्रभाव जाता रहे, वे निष्प्रभाव हो जाएँ।
भावार्थ - शरीर में विविध व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। उन सबको यह बीर्यशक्ति निष्प्रभाव कर डालती है।
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