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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    त्रिष्ट्वा॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्निष्ठि॑तं॒ भूम्या॒मधि॑। तमु॒ त्वाङ्गि॑रा॒ इति॑ ब्राह्म॒णाः पू॒र्व्या वि॑दुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रिः। त्वा॒। दे॒वाः। अ॒ज॒न॒य॒न्। निऽस्थि॑तम्। भूम्या॑म्। अधि॑। तम्। ऊं॒ इति॑। त्वा॒। अङ्गि॑राः। इति॑। ब्रा॒ह्म॒णाः। पू॒र्व्याः। वि॒दुः॒ ॥३४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रिष्ट्वा देवा अजनयन्निष्ठितं भूम्यामधि। तमु त्वाङ्गिरा इति ब्राह्मणाः पूर्व्या विदुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रिः। त्वा। देवाः। अजनयन्। निऽस्थितम्। भूम्याम्। अधि। तम्। ऊं इति। त्वा। अङ्गिराः। इति। ब्राह्मणाः। पूर्व्याः। विदुः ॥३४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. (भूम्याम् अधि) = इस पृथिवीरूप शरीर में (निष्ठितम्) = निश्चय से स्थित (त्वा) = तुझको, हे जंगिड! (देवा:) = देववृत्ति के पुरुषों ने (त्रिः) = [त्रिषु लोकेषु अवस्थानाय सा०] शरीर, मन व बुद्धि रूप पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोक, इन तीनों लोकों में स्थित होने के लिए (अजनयन) = उत्पत्र किया है। जब यह वीर्य [जंगिड] शरीर में सुरक्षित होता है तब यह मन को भी शुद्ध बनाता है और बुद्धि को भी सूक्ष्म करता है। २. हे जंगिड! (तम् उ त्वा) = उस तुझको ही निश्चय से (पूर्व्याः ब्राह्मणा:) = अपना पालन व पूरन करनेवाले ज्ञानी लोग (अङ्गिराः इति) = अंग-प्रत्यंग में रस का संचार करनेवाले के रूप में (विदुः) = जानते हैं। शरीर में सुरक्षित वीर्य सब अंगों को रसमय बनाता है। इससे शरीर में जरावस्था का शीघ्र आक्रमण नहीं होता।

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित वीर्य 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों का व्यापन करता है। यह अंग प्रत्यंग में रस का संचार करता है।

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