अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
अ॑र॒सं कृ॒त्रिमं॑ ना॒दम॑रसाः स॒प्त विस्र॑सः। अपे॒तो ज॑ङ्गि॒डाम॑ति॒मिषु॒मस्ते॑व शातय ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र॒सम्। कृ॒त्रिम॑म्। ना॒दम्। अ॒र॒साः। स॒प्त। विऽस्र॑सः। अप॑। इ॒तः। ज॒ङ्गि॒डः॒। अम॑तिम्। इषु॑म्। अस्ता॑ऽइव। शा॒त॒य॒ ॥३४.३॥
स्वर रहित मन्त्र
अरसं कृत्रिमं नादमरसाः सप्त विस्रसः। अपेतो जङ्गिडामतिमिषुमस्तेव शातय ॥
स्वर रहित पद पाठअरसम्। कृत्रिमम्। नादम्। अरसाः। सप्त। विऽस्रसः। अप। इतः। जङ्गिडः। अमतिम्। इषुम्। अस्ताऽइव। शातय ॥३४.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
विषय - कत्रिम नाद की अरसता
पदार्थ -
१. कई रोगों में हर समय कान में 'शुं शुं'-सी ध्वनि होती रहती है। उसे यहाँ 'कृत्रिम नाद' कहा गया है। वीर्यशक्ति के द्वारा (कृत्रिमं नादं अरसम्) = यह कृत्रिम नाद क्षीण हो जाता है तथा शरीर में होनेवाले (सप्त) = 'दो कानों, दो आँखें, दो नासिका-छिद्र तथा मुख' इन सात से होनेवाले (विस्त्रस:) = निष्यन्द-रसों का टपकना (अरसा:) = क्षीण हो जाए। २. (जङ्गिड) = हे वीर्यमणे! तू (इत:) = हमारे शरीर से (अमतिम्) = दुर्बुद्धि को व बुद्धि की कमी को इसप्रकार (अपशातय) = सुदूर विनष्ट कर (इव) = जैसेकि (अस्ता) = बाणों को फेंकनेवाला (इषुम्) = बाण को दूर फेंकता है।
भावार्थ - वीर्यशक्ति के सुरक्षित होने पर कानों में यों ही होनेवाली 'शू समाप्त हो जाती है, कान आदि से प्रवाहित होनेवाले निष्यन्द रुक जाते हैं, निर्बुद्धिता दूर भाग जाती है।
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