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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त

    न त्वा॒ पूर्वा॒ ओष॑धयो॒ न त्वा॑ तरन्ति॒ या नवाः॑। विबा॑ध उ॒ग्रो ज॑ङ्गि॒डः प॑रि॒पाणः॑ सुम॒ङ्गलः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न। त्वा॒। पूर्वाः॑। ओष॑धयः। न। त्वा॒। त॒र॒न्ति॒। याः। नवाः॑। विऽबा॑धः। उ॒ग्रः। ज॒ङ्गि॒डः। प॒रि॒ऽपानः॑। सु॒ऽम॒ङ्गलः॑ ॥३४.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न त्वा पूर्वा ओषधयो न त्वा तरन्ति या नवाः। विबाध उग्रो जङ्गिडः परिपाणः सुमङ्गलः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न। त्वा। पूर्वाः। ओषधयः। न। त्वा। तरन्ति। याः। नवाः। विऽबाधः। उग्रः। जङ्गिडः। परिऽपानः। सुऽमङ्गलः ॥३४.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. (न) = न तो (त्वा) = तुझे (पूर्वाः ओषधयः) = पुरानी ओषधियों और (न त्वा) = न ही तुझे (या:) = जो (नवा:) = नई ओषधियाँ हैं वे (तरन्ति) = तैर पाती है। कई वस्तुएँ पुरानी होकर औषध के दृष्टिकोण से अधिक महत्त्ववाली हो जाती हैं और कईयों में ताजेपन में ही अधिक गुण होता है। वे ही यहाँ 'पूर्वाः तथा नवा:' शब्दों से कही गई हैं। इनमें से कोई भी जंगिड [वीर्य] की तुलना नहीं कर पाती। जंगिड इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। २. यह (विवाधः) = विशेषरूप से रोगरूप शत्रुओं का बाधन करता है। (उग्रः) = अति तेजस्वी है। (जंगिड:) =-शत्रु-बाधन के लिए शरीर में खूब ही गति करता है। (परिपाण:) = यह सब ओर से रक्षित करनेवाला है और (सुमंगल:) = उत्तम मंगल का साधन है।

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित वीर्य सर्वोत्तम औषध है। यह शत्रुओं का बाधन करता है और हमारा सर्वत: रक्षण करता है।

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