अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 5
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
स ज॑ङ्गि॒डस्य॑ महि॒मा परि॑ णः पातु वि॒श्वतः॑। विष्क॑न्धं॒ येन॑ सा॒सह॒ संस्क॑न्ध॒मोज॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठसः। ज॒ङ्गि॒डस्य॑। म॒हिमा॑। परि॑। नः॒। पा॒तु॒। वि॒श्वतः॑। विऽस्क॑न्धम्। येन॑। स॒सह॑। सम्ऽस्क॑न्धम्। ओजः॑। ओज॑सा ॥३४.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स जङ्गिडस्य महिमा परि णः पातु विश्वतः। विष्कन्धं येन सासह संस्कन्धमोज ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठसः। जङ्गिडस्य। महिमा। परि। नः। पातु। विश्वतः। विऽस्कन्धम्। येन। ससह। सम्ऽस्कन्धम्। ओजः। ओजसा ॥३४.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 5
विषय - 'विष्कन्ध व संस्कन्ध' दूषण
पदार्थ -
१. (जङ्गिडस्य) = रोगरूप शत्रुओं के बाधन के लिए शरीर में गति करनेवाले जंगिड [वीर्य] की (स:) = वह (महिमा) = महिमा (न:) = हमें (विश्वत:) = सब ओर से (परिपातु) = रक्षित करे, २. (येन) = जिस महिमा से यह (ओजः) = शक्तिरूप जंगिडमणि (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (विष्कन्धं संस्कन्धम्) = विष्कन्ध व संस्कन्ध नामक वात रोगों को (सासह) = पराभूत करता है। विष्कन्ध' में स्कन्ध फटते से प्रतीत होते हैं, 'संस्कन्ध' में कन्धे जुड़-से गये प्रतीत होते हैं। वीर्यशक्ति ठीक होने पर ये रोग भाग जाते हैं।
भावार्थ - शरीर में सुरक्षित वीर्य 'विष्कन्ध व संस्कन्ध' नामक भयंकर वातरोगों को उन्मूलित कर देता है।
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