अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
सूक्त - अङ्गिराः
देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
कृ॑त्या॒दूष॑ण ए॒वायमथो॑ अराति॒दूष॑णः। अथो॒ सह॑स्वाञ्जङ्गि॒डः प्र ण॒ आयूं॑षि तारिषत् ॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒त्या॒ऽदूष॑णः। ए॒व। अ॒यम्। अथो॒ इति॑। अ॒रा॒ति॒ऽदूष॑णः। अथो॒ इति॑। सह॑स्वान्। ज॒ङ्गि॒डः। प्र। नः॒। आयूं॑षि। ता॒रि॒ष॒त् ॥३४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
कृत्यादूषण एवायमथो अरातिदूषणः। अथो सहस्वाञ्जङ्गिडः प्र ण आयूंषि तारिषत् ॥
स्वर रहित पद पाठकृत्याऽदूषणः। एव। अयम्। अथो इति। अरातिऽदूषणः। अथो इति। सहस्वान्। जङ्गिडः। प्र। नः। आयूंषि। तारिषत् ॥३४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 4
विषय - कृत्यादूषण-अरातिदूषण
पदार्थ -
१. (अयम्) = यह जङ्गिडमणि (एव) = निश्चय से (कृत्यादूषण:) = छेदन-भेदन की क्रियाओं को दूषित करनेवाला है। शरीर में रोगजनित छेदन-भेदन को यह समाप्त कर देता है। (अथ उ) = और निश्चय से (अरातिदूषण:) = मन में उत्पन्न होनेवाली अदानवृत्तियों को भी दूषित करता है, अर्थात् वीर्यरक्षण से मनुष्य उदारवृत्ति का बनता है। २. (अथ उ) = अब निश्चय से यह (सहस्वान्) = शत्रुओं को कुचलने के बलवाला (जङ्गिड:) = वीर्यमणि (न:) = हमारे (आयूंषि) = जीवनों को (प्रतारिषत्) = बढ़ानेवाला हो।
भावार्थ - सुरक्षित वीर्य शरीर के रोगों को दूर करता है और मन से राक्षसीभावों को अदानवृत्तियों को विनष्ट करता है। इसप्रकार यह आधि-व्याधियों को कुचलता हुआ हमारे जीवनों को दीर्घ बनाता है।
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