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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
    40

    आश॑रीकं॒ विश॑रीकं ब॒लासं॑ पृष्ट्याम॒यम्। त॒क्मानं॑ वि॒श्वशा॑रदमर॒सान् ज॑ङ्गि॒डस्क॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आऽश॑रीकम्। विऽश॑रीकम्। ब॒लास॑म्। पृ॒ष्टि॒ऽआ॒म॒यम्। त॒क्मान॑म्। वि॒श्वऽशा॑रदम्। अ॒र॒सान्। ज॒ङ्गि॒डः। क॒र॒त् ॥३४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आशरीकं विशरीकं बलासं पृष्ट्यामयम्। तक्मानं विश्वशारदमरसान् जङ्गिडस्करत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽशरीकम्। विऽशरीकम्। बलासम्। पृष्टिऽआमयम्। तक्मानम्। विश्वऽशारदम्। अरसान्। जङ्गिडः। करत् ॥३४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सबकी रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (आशरीकम्) आशरीक [शरीर कुचल डालनेवाले रोग] को (विशरीकम्) विशरीक [शरीर तोड़ डालनेवाले रोग] को, (बलासम्) बलास [बल के गिरानेवाले सन्निपात कफ आदि रोग] को, (पृष्ट्यामयम्) पसली [वा छाती] की पीड़ा को, (विश्वशारदम्) सब शरीर में चकत्ते करनेवाले (तक्मानम्) जीवन के कष्ट देनेवाले ज्वर को [इन सब रोगों को] (जङ्गिडः) जङ्गिड [संचार करनेवाला औषध] (अरसान्) नीरस [निष्प्रभाव] (करत्) करे ॥१०॥

    भावार्थ

    जङ्गिड औषध के सेवन से शरीर के अनेक रोग निष्प्रभाव हो जाते हैं ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(आशरीकम्) कषिदूषिभ्यामीकन्। उ०४।१६। आङ्+शॄ हिंसायाम्-ईकन्। सम्यक् शरीरस्य मर्दनशीलम् (विशरीकम्) विशेषेण शरीरस्य खण्डयितारम् (बलासम्) अ०४।९।८। बल+असु क्षेपणे-अण्। बलस्य क्षेप्तारम्। सन्निपातश्लेष्मविकारम् (पृष्ट्यामयम्) अ०२।७।५। पृषु सेचने क्तिच्। पृष्टेः पर्श्वस्थ्नो वक्षःस्थलस्य वा आमयं रोगम् (तक्मानम्) अ०१।२५।१। तकि कृच्छ्रजीवने-मनिन्। कृच्छ्रजीवनकारिणं ज्वरम् (विश्वशारदम्) अ०९।८।६। शार दौर्बल्ये-अच्, यद्वा शॄ हिंसायाम्-घञ्+ददातेः-क प्रत्ययः। सर्वस्मिन् शरीरे कर्बुरवर्णं ददातीति तम् (अरसान्) निष्प्रभावान् (जङ्गिडः) म०१। औषधविशेषः (करत्) कुर्यात् ॥

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    विषय

    'बलास पृष्टयामय' विनाश

    पदार्थ

    १. (आशरीकम्) = शरीर को सर्वत: हिसित करनेवाले, (विशरीकम्) = विशेषरूप से शरीर को तोड़नेवाले, (बलासम्) = बल को दूर फेंकनेवाले कफ आदि रोग को, (पृष्टयामयम्) = पसली व छाती की पीड़ा को, (तक्मानम्) = शरीर को कष्टमय बनानेवाले ज्वर को तथा (विश्वशारदम्) = सब शरीर में चकत्ते-ही-चकत्ते कर देनेवाले रोग को (जङ्गिडः) = यह वीर्यमणि (अरसान्) = निष्प्रभाव (करत्) = कर दे।

    भावार्थ

    शरीर में सुरक्षित वीर्य 'वात-पित-कफ़' जनित सब विकारों को दूर करता है।

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    भाषार्थ

    (आशरीकम्) समग्र शरीर के जीर्ण-शीर्ण हो जाने को, (विशरीकम्) शरीर के किसी विशेष अङ्ग के जीर्ण-शीर्ण हो जाने को, (बलासम्) बल का विनाश करनेवाले कफ रोग को (पृष्ट्यामयम्) पृष्ठरोग अर्थात् पृष्ठ के कुबड़ेपन को, (विश्वशारदम्) प्रत्येक शरद् ऋतु में होनेवाले (तक्मानम्) कष्टप्रद ज्वर को (जङ्गिडः) जङ्गिड औषध (अरसान्) रसशून्य अर्थात् निष्प्रभाव (करत्) करती है।

    टिप्पणी

    [पृष्ट्यामय=पृष्ठरोग (निरु० ५.४.२१)। यथा—“तष्टेव पृष्ट्यामयी” (ऋ० १.१०५.१८)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jangida Mani

    Meaning

    O Jangida, render ineffectual all diseases which break down the body system, rheumatic pains, consumption and cancer, back pains and autumnal fevers repeating every year.

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    Translation

    May the jangida make powerless the crushing pain (lumbago), the bursting pain (artheritis), consumptive cough, and the disease of the ribs (pleurisy), and the fever coming every autumn.

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    Translation

    The mighty sun gives power in this tree. Let this medicinal plant destroy all the diseases and dispel malignancies.

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    Translation

    Let the Jangida herb, drive away the onslaught the following fatal diseases Asharika, Vishrika, the asthma, the cancer of the back-bone, the consumption, which consume all the energy of the body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(आशरीकम्) कषिदूषिभ्यामीकन्। उ०४।१६। आङ्+शॄ हिंसायाम्-ईकन्। सम्यक् शरीरस्य मर्दनशीलम् (विशरीकम्) विशेषेण शरीरस्य खण्डयितारम् (बलासम्) अ०४।९।८। बल+असु क्षेपणे-अण्। बलस्य क्षेप्तारम्। सन्निपातश्लेष्मविकारम् (पृष्ट्यामयम्) अ०२।७।५। पृषु सेचने क्तिच्। पृष्टेः पर्श्वस्थ्नो वक्षःस्थलस्य वा आमयं रोगम् (तक्मानम्) अ०१।२५।१। तकि कृच्छ्रजीवने-मनिन्। कृच्छ्रजीवनकारिणं ज्वरम् (विश्वशारदम्) अ०९।८।६। शार दौर्बल्ये-अच्, यद्वा शॄ हिंसायाम्-घञ्+ददातेः-क प्रत्ययः। सर्वस्मिन् शरीरे कर्बुरवर्णं ददातीति तम् (अरसान्) निष्प्रभावान् (जङ्गिडः) म०१। औषधविशेषः (करत्) कुर्यात् ॥

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