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अथर्ववेद के काण्ड - 19 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 34/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अङ्गिराः देवता - जङ्गिडो वनस्पतिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - जङ्गिडमणि सूक्त
    45

    अथो॑पदान भगवो॒ जाङ्गि॒डामि॑तवीर्य। पु॒रा त॑ उ॒ग्रा ग्र॑सत॒ उपेन्द्रो॑ वी॒र्यं ददौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अथ॑। उ॒प॒ऽदा॒न॒। भ॒ग॒ऽवः॒। जङ्गि॑ड। अमि॑तऽवीर्य। पु॒रा। ते॒। उ॒ग्राः। ग्र॒स॒ते॒। उप॑। इन्द्रः॑। वी॒र्य᳡म्। द॒दौ॒ ॥३४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अथोपदान भगवो जाङ्गिडामितवीर्य। पुरा त उग्रा ग्रसत उपेन्द्रो वीर्यं ददौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अथ। उपऽदान। भगऽवः। जङ्गिड। अमितऽवीर्य। पुरा। ते। उग्राः। ग्रसते। उप। इन्द्रः। वीर्यम्। ददौ ॥३४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 34; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सबकी रक्षा का उपदेश।

    पदार्थ

    (अथ) और, (उपदान) हे ग्रहण करने योग्य ! (भगवः) हे ऐश्वर्यवान् ! (अमितवीर्य) हे अपरिमित सामर्थ्यवाले ! (जङ्गिड) हे जङ्गिड ! [संचार करनेवाले औषध] (उग्राः) तेजस्वी लोग (ते) तेरा (ग्रसते) ग्रास करते हैं, [इसलिये] (इन्द्रः) इन्द्र [परम ऐश्वर्यवान् जगदीश्वर] ने (पुरा) पहिले काल में [तुझे] (वीर्यम्) सामर्थ्य (उप ददौ) दिया है ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा ने यह विचारकर कि जङ्गिड औषध सर्वोपकारी होवे, उसको पहिले ही से बड़ा प्रभावशाली बनाया है ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(अथो) अपि च (उपदान) हे स्वीकरणीय (भगवः) हे ऐश्वर्यवन् (जङ्गिड) म०१। हे संचारशील महौषध (अमितवीर्य) हे महाप्रभाव जङ्गिड (पुरा) पूर्वकाले (ते) तव (उग्राः) तेजस्विनः पुरुषाः (ग्रसते) अदादिः। ग्रासं कुर्वन्ति। सेवन्ते (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (वीर्यम्) प्रभावम् (उप ददौ) प्रदत्तवान् ॥

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    विषय

    उपदान

    पदार्थ

    १. (अथ) = अब हे उपदान [दाप् लवने] रोगरूप शत्रुओं का छेदन करनेवाले, (भगव:) = अतिशयित ऐश्वर्यवाले! (अमितवीर्य) = अनन्तशक्तिवाले (जङ्गिड) = वीर्यमणे! (ते) = वे (उग्रा:) = अतिप्रबल रोग (ग्रसते) = ग्रस लें, उससे (पुरा) = पहले ही (ते) = तुझे (इन्द्र:) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु ने (वीर्यम् उपददौ) = वीर्य के रूप में दिया है। २. वीर्य की शरीर में स्थापना इसी उद्देश्य से हुई है कि यह रोगों का शिकार न हो जाए।

    भावार्थ

    वीर्य "उपदान' है-रोगों का लवन [छेदन] करनेवाला है। इसके सामर्थ्य से प्रबल रोग भी विनष्ट हो जाते हैं। वे रोग मनुष्य को निगल नहीं पाते।

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    भाषार्थ

    (अथ) तथा (उपदान) हे शक्तिप्रद! (भगवः) रोगनिवारण में यशस्वी! (अमितवीर्य) अपरिमित सामर्थ्यवाली (जङ्गिड) जङ्गिड औषध! (ते उग्राः) वे उग्ररोगी (ग्रसते) तेरा सेवन करते हैं। (इन्द्रः) इन्द्र ने (पुरा) पहिले (वीर्यम्) शक्ति, तुझे (उप ददौ) प्रदान की है।

    टिप्पणी

    [इन्द्रः= परमैश्वर्यवान् परमेश्वर, या मेघीय विद्युत् ने वर्षा द्वारा (देखो—अथर्व० १९.३५.१)। ग्रसते=ग्रास करना, खाना, सेवन करना।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Jangida Mani

    Meaning

    O Jangida, generous giver of health and longevity, great with grandeur, boundless strong and powerful, earlier the lustrous men fed on you and, long before any virulent disease could devour them, Indra, lord omnipotent, vested you with unassailable strength and efficacy.

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    Translation

    O bounteous jangida of immeasurable Strength, at the time of your coming to life, the resplendent Lord put great power in you in the very beginning, so that the formidable ones may not favour you.

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    Translation

    This Jangida is mighty protective and comfort-giver. Neither the medicines prepared prior to it surpass it nor the medicines which are of recent time surpass it.

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    Translation

    O Jangida, protector of those who approach thee, the lord of fortunes the source of limitless valour, the terrible Indra has already showered on thee, the consumer of all great energy and power.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(अथो) अपि च (उपदान) हे स्वीकरणीय (भगवः) हे ऐश्वर्यवन् (जङ्गिड) म०१। हे संचारशील महौषध (अमितवीर्य) हे महाप्रभाव जङ्गिड (पुरा) पूर्वकाले (ते) तव (उग्राः) तेजस्विनः पुरुषाः (ग्रसते) अदादिः। ग्रासं कुर्वन्ति। सेवन्ते (इन्द्रः) परमैश्वर्यवान् जगदीश्वरः (वीर्यम्) प्रभावम् (उप ददौ) प्रदत्तवान् ॥

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