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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 42

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्म छन्दः - जगती सूक्तम् - ब्रह्म यज्ञ सूक्त

    अं॒हो॒मुचं॑ वृष॒भं य॒ज्ञिया॑नां वि॒राज॑न्तं प्रथ॒मम॑ध्व॒राण॑म्। अ॒पां नपा॑तम॒श्विना॑ हुवे॒ धिय॑ इन्द्रि॒येण॑ त इन्द्रि॒यं द॑त्त॒मोजः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अं॒हः॒ऽमुच॑म्। वृ॒ष॒भम्। य॒ज्ञिया॑नाम्। वि॒ऽराज॑न्तम्। प्र॒थ॒मम्। अ॒ध्व॒राणा॑म्। अ॒पाम्। नपा॑तम्। अ॒श्विना॑। हु॒वे॒। धियः॑। इ॒न्द्रि॒येण॑। ते॒ । इ॒न्द्रि॒यम्। द॒त्त॒म्। ओजः॑ ॥४२.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अंहोमुचं वृषभं यज्ञियानां विराजन्तं प्रथममध्वराणम्। अपां नपातमश्विना हुवे धिय इन्द्रियेण त इन्द्रियं दत्तमोजः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अंहःऽमुचम्। वृषभम्। यज्ञियानाम्। विऽराजन्तम्। प्रथमम्। अध्वराणाम्। अपाम्। नपातम्। अश्विना। हुवे। धियः। इन्द्रियेण। ते । इन्द्रियम्। दत्तम्। ओजः ॥४२.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 42; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. मैं उस प्रभु को (हुवे) = पुकारता हूँ जोकि (अंहोमुखम्) = पाप से छुड़ानेवाले हैं, (यज्ञियानां वृषभम्) = पूजनीयों में श्रेष्ठ हैं अथवा यज्ञशील पुरुषों पर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं, (अध्वराणां प्रथमं विराजन्तम्) = यज्ञों में सबसे प्रथम [मुख्यरूप से] देदीप्यमान होनेवाले हैं और (अपां नपातम्) = हमारे शरीरों में रेत:कणों को नष्ट न होने देनेवाले हैं। २. मैं प्रभु का उपासन करता हुआ (अश्विना हुवे) = इन प्राणापान को भी पुकारता हूँ-प्राणसांधना करता हूँ। हे प्राणापानो! आप (ते इन्द्रियेण) = अपने वीर्य के साथ धियः बुद्धियों को तथा (ओजः) = ओजस्विता को (दत्तम्) = दीजिए। प्राणसाधना से ही शरीर में वीर्य की ऊर्ध्वगति होती है, अतः वीर्य को 'प्राणापान का' कहा गया है।

    भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन करें और प्राणसाधना को अपनाएँ। इससे हमें वीर्य, बुद्धि व ओज प्राप्त होगा।

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