अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 43/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः, ब्रह्म
छन्दः - त्र्यवसाना शङ्कुमती पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - ब्रह्मा सूक्त
यत्र॑ ब्रह्म॒विदो॒ यान्ति॑ दी॒क्षया॒ तप॑सा स॒ह। अ॒ग्निर्मा॒ तत्र॑ नयत्व॒ग्निर्मे॒धा द॑धातु मे। अ॒ग्नये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑। ब्र॒ह्म॒ऽविदः॑। यान्ति॑। दी॒क्षया॑। तप॑सा। स॒ह। अ॒ग्निः। मा॒। तत्र॑। न॒य॒तु॒। अ॒ग्निः। मे॒धाः। द॒धा॒तु॒। मे॒। अ॒ग्नये॑। स्वाहा॑ ॥४३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्र ब्रह्मविदो यान्ति दीक्षया तपसा सह। अग्निर्मा तत्र नयत्वग्निर्मेधा दधातु मे। अग्नये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। ब्रह्मऽविदः। यान्ति। दीक्षया। तपसा। सह। अग्निः। मा। तत्र। नयतु। अग्निः। मेधाः। दधातु। मे। अग्नये। स्वाहा ॥४३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 43; मन्त्र » 1
विषय - अग्नि-मेधा
पदार्थ -
१. (यत्र) = जहाँ (ब्रह्मविदः) = ब्रह्मज्ञानी पुरुष (दीक्षया तपसा सह) = व्रतसंग्रह व तप के साथ (यान्ति) = जाते हैं, अर्थात् जिस लोक को ये ब्रह्मज्ञानी प्राप्त करते हैं, (अग्नि) = वह अग्नणी प्रभु (मा) = मुझे (तत्र) = वहाँ (नयन्तु) = प्राप्त कराए। २. इसी दृष्टिकोण से यह अग्नि प्रभु (मे) = मेरे लिए (मेधाम दधातु) = बुद्धियों को धारण करे। (अग्नये स्वाहा) = इस अग्नि के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ।
भावार्थ - अग्रणी प्रभु मुझे मेधा प्राप्त कराएँ। मैं दीक्षा व तप को अपनाता हुआ ब्रह्मज्ञानी बनूँ और उत्कृष्ट लोक को प्राप्त करूँ।
इस भाष्य को एडिट करें