अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 6
यद॒द्या रा॑त्रि सुभगे वि॒भज॒न्त्ययो॒ वसु॑। यदे॒तद॒स्मान्भोज॑य॒ यथेद॒न्यानु॒पाय॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठयत्। अ॒द्य। रा॒त्रि॒। सु॒ऽभ॒गे॒। वि॒ऽभज॑न्ति। अयः॑। वसु॑ ॥ यत्। ए॒तत्। अ॒स्मान्। भो॒ज॒य॒। यथा॑। इत्। अ॒न्यान्। उ॒प॒ऽअय॑सि ॥५०.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यदद्या रात्रि सुभगे विभजन्त्ययो वसु। यदेतदस्मान्भोजय यथेदन्यानुपायसि ॥
स्वर रहित पद पाठयत्। अद्य। रात्रि। सुऽभगे। विऽभजन्ति। अयः। वसु ॥ यत्। एतत्। अस्मान्। भोजय। यथा। इत्। अन्यान्। उपऽअयसि ॥५०.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 6
विषय - - अयः वसु
पदार्थ -
१. हे (सुभगे) = उत्तम ऐश्वर्योवाली-ऐश्वयों की रक्षक (रात्रि) = रात्रिदेवते! (यत्) = जिसकी लोहा आदि धातुओं से बनी वस्तुओं तथा (वसु) = सुवर्णादि धन को (अद्य) = इस समय (विभजन्ति) = [विष्ले षयन्ति] हमसे पृथक् करते हैं, अर्थात् चुरा ले-जाते हैं । (यत् एतत्) = जो यह धन है उसे (अस्मान् भोजय) = हमें ही भोगनेवाला बनाइए। इस धन को हमसे कोई पृथक् न कर पाए। २. हे राजन्! आप रात्रि में इसप्रकार रक्षण-व्यवस्था करें कि (यथा) = जिससे (इत्) = निश्चयपूर्वक (अन्यान्) = वस्त्र, गौ, अज व अश्व आदि अन्य शत्रुओं से अपहत पदार्थों को भी (उपावसि) = हमें पुन: प्राप्त कराते है।|
भावार्थ - रात्रि में रक्षण-व्यवस्था इस प्रकार उत्तम हो कि लोहे आदि धातुओं से बनी वस्तुओं का तथा सुवर्ण आदि का अपहरण न हो सके। अपहत वस्तुओं को भी ढूंढकर पुनः उनके स्वामी को प्राप्त कराया जाए।
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