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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 50

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
    सूक्त - गोपथः देवता - रात्रिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - रात्रि सूक्त

    अध॑ रात्रि तृ॒ष्टधू॑ममशी॒र्षाण॒महिं॑ कृणु। अ॒क्षौ वृक॑स्य॒ निर्ज॑ह्या॒स्तेन॒ तं द्रु॑प॒दे ज॑हि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑। रा॒त्रि॒। तृ॒ष्टऽधू॑मम्। अ॒शी॒र्षाण॑म्। अहि॑म्। कृ॒णु॒ ॥ अ॒क्षौ। वृक॑स्य। निः। ज॒ह्याः॒। तेन॑। तम्। द्रु॒ऽप॒दे। ज॒हि॒ ॥५०.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध रात्रि तृष्टधूममशीर्षाणमहिं कृणु। अक्षौ वृकस्य निर्जह्यास्तेन तं द्रुपदे जहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। रात्रि। तृष्टऽधूमम्। अशीर्षाणम्। अहिम्। कृणु ॥ अक्षौ। वृकस्य। निः। जह्याः। तेन। तम्। द्रुऽपदे। जहि ॥५०.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 50; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (रात्रि) = रात्रिदेवते! (अध) = अब (तृष्टभूमम्) = आर्तिजनक व बड़ी प्यास लगानेवाली विष ज्वाला के धूमवाले (अहिम्) = इस सर्प को (अशीर्वाणम्) = छिन्न शिरवाला कृणु-कर दे। इस (वृकस्य) = भेड़िये की आँखों को भी (निर्जला:) = नियुक्त कर दे-निकाल दे और जो स्तेन [स्तेनः] चोर है (तम्) = उसको द्रुपदे जहि गति के साधनभूत पाँव में हिंसित कर, अर्थात् इसके पाँवों को छिन्न कर डाल।

    भावार्थ - रात्रि में उचित रक्षणव्यवस्था द्वारा 'सर्प, वृक व चोर' सभी के भयों से प्रजा को मुक्त किया जाए।

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