अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
सूक्त - भृगुः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त
रात्रिं॑रात्रि॒मप्र॑यातं॒ भर॒न्तोऽश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते घा॒सम॒स्मै। रा॒यस्पोषे॑ण॒ समि॒षा मद॑न्तो॒ मा ते॑ अग्ने॒ प्रति॑वेशा रिषाम ॥
स्वर सहित पद पाठरात्रि॑म्ऽरात्रिम्। अप्र॑ऽयात॑म्। भर॑न्तः। अश्वा॑यऽइव। तिष्ठ॑ते। घा॒सम्। अ॒स्मै। रा॒यः। पोषे॑ण। सम्। इ॒षा। मद॑न्तः। मा। ते॒। अ॒ग्ने॒। प्रति॑ऽवेशाः। रि॒षा॒म॒ ॥५५.१॥
स्वर रहित मन्त्र
रात्रिंरात्रिमप्रयातं भरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमस्मै। रायस्पोषेण समिषा मदन्तो मा ते अग्ने प्रतिवेशा रिषाम ॥
स्वर रहित पद पाठरात्रिम्ऽरात्रिम्। अप्रऽयातम्। भरन्तः। अश्वायऽइव। तिष्ठते। घासम्। अस्मै। रायः। पोषेण। सम्। इषा। मदन्तः। मा। ते। अग्ने। प्रतिऽवेशाः। रिषाम ॥५५.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
विषय - रायस्पोषेण-इषा
पदार्थ -
१. (रात्रिंरात्रिम्) = सदा-सब कालों में प्रत्येक रात, अर्थात् प्रतिदिन (अप्रयातम्) = विना विच्छेद के [प्रयात=dead] (अस्मै) = इस अग्नि के लिए (भरन्त:) = हवि देते हुए, (इव) = जैसेकि (तिष्ठते अश्वाय) = घर में ठहरनेवाले घोड़े के लिए (घासम्) = घास को देते हैं, उसी प्रकार अग्नि के लिए हवि देते हुए हम (मा रिषाम) = मत हिंसित हों। २. हे यज्ञ-अग्ने! हम (रायः पोषेण) = धन के पोषण से तथा (इषा) = उत्तम अन्नों से (मदन्त:) = आनन्दित होते हुए (ते प्रतिवेशा:) = तेरे पड़ोसी होते हुए हिंसित न हो। यह यज्ञाग्नि का सान्निध्य हमें हिंसा से बचाए।
भावार्थ - हम प्रतिदिन बिना विच्छेद के अग्निहोत्र करें। यह अग्निहोत्र हमें उचित धनों का पोषण व उत्तम अन्न प्राप्त करोनवाला हो।
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