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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 55

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 55/ मन्त्र 6
    सूक्त - भृगुः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्बृहती सूक्तम् - रायस्पोष प्राप्ति सूक्त

    त्वमि॑न्द्रा पुरुहूत॒ विश्व॒मायु॒र्व्यश्नवत्। अह॑रहर्ब॒लिमित्ते॒ हर॒न्तोऽश्वा॑येव॒ तिष्ठ॑ते घा॒सम॑ग्ने ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। इ॒न्द्र॒। पु॒रु॒ऽहू॒त॒। विश्व॑म्। आयुः॑। वि। अ॒श्न॒व॒त्। अहः॑ऽअहः। ब॒लिम्। इत्। ते॒। हर॑न्तः। अश्वा॑यऽइव। तिष्ठ॑ते। घा॒सम्। अ॒ग्ने॒ ॥५५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्रा पुरुहूत विश्वमायुर्व्यश्नवत्। अहरहर्बलिमित्ते हरन्तोऽश्वायेव तिष्ठते घासमग्ने ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। इन्द्र। पुरुऽहूत। विश्वम्। आयुः। वि। अश्नवत्। अहःऽअहः। बलिम्। इत्। ते। हरन्तः। अश्वायऽइव। तिष्ठते। घासम्। अग्ने ॥५५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 55; मन्त्र » 6

    पदार्थ -
    १. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् ! (पुरुहूत) = पालक व पूरक है आह्वान [प्रार्थना] जिसकी, ऐसे प्रभो! (त्वम्) = आप (विश्वम्) = सम्पूर्ण (आयु:) = जीवन को (व्यश्नवत्) = [प्रापय। पुरुषव्यत्यय: लेटि रूपम्] प्राप्त कराइए। २. हे अग्ने! यज्ञाग्ने! (तिष्ठते अश्वाय घासम् इव) = गृह में स्थित घोड़े के लिए जैसे प्रेम से घास प्राप्त कराते हैं, इसी प्रकार हम (ते) = तेरे लिए (अहरहः) = प्रतिदिन (इत्) = निश्चय से (बलिम्) = बलि को-अन्नभाग को (हरन्त:) = प्राप्त कराते हुए हों।

    भावार्थ - हम यज्ञों के द्वारा प्रभु-पूजन करें। प्रभु हमें शतवर्ष के पूर्णजीवन को प्रास कराएंगे। यज्ञों में प्रवृत्त व्यक्ति अपने जीवन को नियमित बनाता है, अत: 'यम' होता है। यह यम ही अगले दो सुक्तों का ऋषि है

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