अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
य॒मस्य॑ लो॒कादध्या ब॑भूविथ॒ प्रम॑दा॒ मर्त्या॒न्प्र यु॑नक्षि॒ धीरः॑। ए॑का॒किना॑ स॒रथं॑ यासि वि॒द्वान्त्स्वप्नं॒ मिमा॑नो॒ असु॑रस्य॒ योनौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय॒मस्य॑। लो॒कात्। अधि॑। आ। ब॒भू॒वि॒थ॒। प्रऽम॑दा। मर्त्या॑न्। प्र। यु॒न॒क्षि॒। धीरः॑। ए॒का॒किना॑। स॒ऽरथ॑म्। या॒सि॒। वि॒द्वान्। स्वप्न॑म्। मिमा॑नः। असु॑रस्य। योनौ॑ ॥५६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
यमस्य लोकादध्या बभूविथ प्रमदा मर्त्यान्प्र युनक्षि धीरः। एकाकिना सरथं यासि विद्वान्त्स्वप्नं मिमानो असुरस्य योनौ ॥
स्वर रहित पद पाठयमस्य। लोकात्। अधि। आ। बभूविथ। प्रऽमदा। मर्त्यान्। प्र। युनक्षि। धीरः। एकाकिना। सऽरथम्। यासि। विद्वान्। स्वप्नम्। मिमानः। असुरस्य। योनौ ॥५६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
विषय - 'धीर' स्वप्न
पदार्थ -
१. हे स्वप्न ! तू (यमस्य लोकात् अधि) = यम के लोक से (आबभूविथ) = प्रकट हुआ है, अर्थात् स्वप्न की उत्पत्ति ही मानो मृत्युलोक से होती है-यह शीघ्रमृत्यु का कारण बनता है। हे दु:ष्वप्न! तू आकर (धीर:) = [धियम् ईरयति] बुद्धि को काम्पित कर देनेवाला होता हुआ, अर्थात् किसी से भी भयभीत न होता हुआ (प्रमदा:) = स्त्रियों को (मर्त्यान्) = और पुरुषों को (प्रयुनक्षि) = अपने से जोड़ता है। २. अब (विद्वान्) = नानाप्रकार की बातों को जानता हुआ तू [स्वप्न में न जाने कब के संस्कार जाग उठते हैं] (एकाकिना) = अकेले उस स्वप्नद्रष्टा पुरुष के साथ (सरथं यासि) = इस समान शरीररूप रथ में गति करता है। हे दुःस्वप्नाभिमानिन् देव! तू (असुरस्य) = [असुः प्राणः, तद्वान् असुर:] प्राणवान् आत्मा के (योनौ) = उपलब्धि स्थान हृदय में (स्वप्नम्) = कष्टमय, अनिष्टफलप्रद स्वप्न को (मिमान:) = निर्मित करता हुआ है। यह दुःस्वप्न की देवता इस स्वप्नद्रष्टा को यमलोक में ले-जाती है।
भावार्थ - स्वप्न हमारी बुद्धियों को कम्पित कर देता है। हृदय में भय पैदा करता हुआ यह शीघ्र मृत्यु का कारण बनता है।
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