अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 56/ मन्त्र 4
सूक्त - यमः
देवता - दुःष्वप्ननाशनम्
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - दुःस्वप्नानाशन सूक्त
नैतां वि॑दुः पि॒तरो॒ नोत दे॒वा येषां॒ जल्पि॒श्चर॑त्यन्त॒रेदम्। त्रि॒ते स्वप्न॑मदधुरा॒प्त्ये नर॑ आदि॒त्यासो॒ वरु॑णे॒नानु॑शिष्टाः ॥
स्वर सहित पद पाठन। ए॒ताम्। वि॒दुः॒। पि॒तरः॑। न। उ॒त। दे॒वाः। येषा॑म्। जल्पिः॑। चर॑ति। अ॒न्त॒रा। इ॒दम् । त्रि॒ते। स्वप्न॑म्। अ॒द॒धुः॒। आ॒प्त्ये। नर॑। आदि॑त्यासः। वरु॑णेन। अनु॑ऽशिष्टाः ॥५६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
नैतां विदुः पितरो नोत देवा येषां जल्पिश्चरत्यन्तरेदम्। त्रिते स्वप्नमदधुराप्त्ये नर आदित्यासो वरुणेनानुशिष्टाः ॥
स्वर रहित पद पाठन। एताम्। विदुः। पितरः। न। उत। देवाः। येषाम्। जल्पिः। चरति। अन्तरा। इदम् । त्रिते। स्वप्नम्। अदधुः। आप्त्ये। नर। आदित्यासः। वरुणेन। अनुऽशिष्टाः ॥५६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 56; मन्त्र » 4
विषय - स्वप्नों का न आना, या उत्कृष्ट स्वप्नों का आना
पदार्थ -
१. (एताम्) = इस स्वप्नवृत्ति को (पितर:) = रक्षणात्मक कार्यों में लगे हुए लोग (न विदुः) = नहीं जानते। इन पितरों को अशुभ स्वप्न नहीं आते (उत) = और वे देवा:-देव भी इस स्वप्नवृत्ति को नहीं जानते, (येषाम्) = जिन देवों को (इदम् अन्तरा) = इस हृदयाकाश में (जल्पि:) = प्रभु से वार्तालाप (चरति) = होता है। २. ये (वरुणेन अनुशिष्टा:) = पापों के निवारक प्रभु से अनुशिष्ट हुए-हुए (आदित्यास:) = सब अच्छाइयों का आदान करनेवाले (नर:) = उन्नति-पथ पर चलनेवाले लोग पहले तो स्वप्नों को देखते ही नहीं, देखते भी हैं तो (आप्त्ये) = प्रभु को प्राप्त करनेवालों में (उत्तम त्रिते) = काम, क्रोध, लोभ को तैर जानेवाले चित्त के विषय में (स्वप्नम् अदधुः) = स्वप्न को धारण करते हैं। इन्हें स्वप्न में 'त्रित आप्त्य' का ही दर्शन होता है। ये उस-जैसा बनने का ही स्वप्न लेते हैं।
भावार्थ - हृदयाकाश में प्रभु से बात करनेवाले पितर व देव अशुभ स्वप्नों को नहीं देखते। इन्हें 'त्रित आप्त्यों' के विषय में ही स्वप्न आते हैं और ये वैसा ही बनने का स्वप्न लेते हैं।
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