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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 59/ मन्त्र 1
त्वम॑ग्ने व्रत॒पा अ॑सि दे॒व आ मर्त्ये॒ष्वा। त्वं य॒ज्ञेष्वीड्यः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम्। अ॒ग्ने॒। व्र॒त॒ऽपाः। अ॒सि॒। दे॒वः। आ। मर्त्ये॑षु। आ। त्वम्। य॒ज्ञेषु॑। ईड्यः॑॥५९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने व्रतपा असि देव आ मर्त्येष्वा। त्वं यज्ञेष्वीड्यः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। व्रतऽपाः। असि। देवः। आ। मर्त्येषु। आ। त्वम्। यज्ञेषु। ईड्यः॥५९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 59; मन्त्र » 1
विषय - व्रतपा:-ईडयः
पदार्थ -
१. हे अपने-अग्रणी प्रभो! (त्वम्) = आप ही (व्रतपाः असि) = व्रतों का रक्षण करनेवाले हैं। आपके अनुग्रह से ही हम अपने यज्ञ आदि उत्तम कर्मों व व्रतों का रक्षण कर पाएंगे। आप ही (मर्त्येष) = इन मरणधर्मा प्राणियों में (आ) = समन्तात् (देव:) = जाठराग्निरूपेण व ज्ञानाग्निरूपेण दीप्त होनेवाले हैं। जाठराग्नि रूपेण दीस होकर आप ही 'बल' प्राप्त कराते हैं और ज्ञानाग्निरूपेण दीप्त होने पर आप ही हमारे जीवनों को ज्ञानोज्ज्वल करते हैं। २. आप ही (यज्ञेषु) = सब यज्ञों में, उत्तम कर्मों में, (ईड्य) = उपासनीय है। आपकी कृपा से ही ये सब यज्ञपूर्ण होते हैं और इन यज्ञों के द्वारा ही आपकी वास्तविक अर्चना होती है।
भावार्थ - प्रभु'व्रतपाः'हैं, 'देव' हैं, "ईड्य' हैं। प्रभु-कृपा से ही हमारे व्रत पूर्ण होते हैं, प्रभु ही हमारे जीवनों को शक्ति व ज्ञान से द्योतित करते हैं, प्रभु ही यज्ञों के द्वारा उपासनीय हैं।
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