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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 59/ मन्त्र 3
आ दे॒वाना॒मपि॒ पन्था॑मगन्म॒ यच्छ॒क्नवा॑म॒ तद॑नु॒प्रवो॑ढुम्। अ॒ग्निर्वि॒द्वान्त्स य॑जा॒त्स इद्धोता॒ सोऽध्व॒रान्त्स ऋ॒तून्क॑ल्पयाति ॥
स्वर सहित पद पाठआ। दे॒वाना॑म्। अपि॑। पन्था॑म्। अ॒ग॒न्म॒। यत्। श॒क्नवा॑म। तत्। अ॒नु॒ऽप्रवो॑ढुम्। अ॒ग्निः। वि॒द्वान्। सः। य॒जा॒त्। सः। इत्। होता॑। सः। अ॒ध्व॒रान्। सः। ऋ॒तून्। क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥५९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आ देवानामपि पन्थामगन्म यच्छक्नवाम तदनुप्रवोढुम्। अग्निर्विद्वान्त्स यजात्स इद्धोता सोऽध्वरान्त्स ऋतून्कल्पयाति ॥
स्वर रहित पद पाठआ। देवानाम्। अपि। पन्थाम्। अगन्म। यत्। शक्नवाम। तत्। अनुऽप्रवोढुम्। अग्निः। विद्वान्। सः। यजात्। सः। इत्। होता। सः। अध्वरान्। सः। ऋतून्। कल्पयाति ॥५९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 59; मन्त्र » 3
विषय - देवों के मार्ग पर
पदार्थ -
१. हम देवानाम्-देवों के-ज्ञानियों के पन्थाम-मार्ग को अपि-ही आ आगन्म-सर्वथा प्राप्त हो। यत् शक्नवाम-जिस कर्म को करने में समर्थ हों, तत्-उस कर्म को अनु प्रवोदुम्-अनुक्रम से वहन करने के लिए विद्वानों के मार्ग का ही अनुसरण करें। शक्ति होने पर भी, ज्ञानियों का संपर्क न होने पर, हम ग़लत कर्म कर बैठेंगे। वे अग्नि:-अग्रणी प्रभु विद्वान्-ज्ञानी हैं। सः यजात्-उनका हमारे साथ संगतिकरण हो। प्रभु के मेल से ही तो हमें सामर्थ्य प्रास होगा। सः इत् होता-वे प्रभु ही सब-कुछ देनेवाले हैं। सः वे प्रभु ही अध्वरान्-यज्ञों को कल्पयाति-करते हैं-हमारे माध्यम से प्रभु ही यज्ञों को करते हैं। स: ऋतून-वे प्रभु ही यज्ञों के लिए अवसरों को देते हैं।
भावार्थ - देवों के मार्ग पर चलते हुए हम शक्ति को यज्ञों की पूर्ति में ही लगाएँ। प्रभु के सम्पर्क में स्थित होकर शक्ति प्राप्त करें। प्रभु को ही यज्ञों का करनेवाला जानें। प्रभु ही यज्ञों के लिए अवसरों को प्राप्त कराते हैं।
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