Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 60/ मन्त्र 1
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - मन्त्रोक्ताः, वाक्
छन्दः - पथ्याबृहती
सूक्तम् - अङ्ग सूक्त
वाङ्म॑ आ॒सन्न॒सोः प्रा॒णश्चक्षु॑र॒क्ष्णोः श्रोत्रं॒ कर्ण॑योः। अप॑लिताः॒ केशा॒ अशो॑णा॒ दन्ता॑ ब॒हु बा॒ह्वोर्बल॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठवाक्। मे॒। आ॒सन्। न॒सोः। प्रा॒णः। चक्षुः॑। अ॒क्ष्णोः। श्रोत्र॑म्। कर्ण॑योः। अप॑लिताः। केशाः॑। अशो॑णाः। दन्ताः॑। ब॒हु। बा॒ह्वोः। बल॑म् ॥६०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
वाङ्म आसन्नसोः प्राणश्चक्षुरक्ष्णोः श्रोत्रं कर्णयोः। अपलिताः केशा अशोणा दन्ता बहु बाह्वोर्बलम् ॥
स्वर रहित पद पाठवाक्। मे। आसन्। नसोः। प्राणः। चक्षुः। अक्ष्णोः। श्रोत्रम्। कर्णयोः। अपलिताः। केशाः। अशोणाः। दन्ताः। बहु। बाह्वोः। बलम् ॥६०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 60; मन्त्र » 1
विषय - सशक्त अङ्ग
पदार्थ -
१. प्रभु-कृपा से (मे आसन्) = मेरे मुख में (वाक्) = बोलने की शक्ति हो, (नसोः प्राण:) = नासिका छिद्रों में प्राणशक्ति हो, (अक्ष्णो:) = आँखों में (चक्षु:) = दर्शनशक्ति हो और (कर्णयोः श्रोत्रम्) = कानों में सुनने की शक्ति हो। ३. मेरे (केशा:) = केश (अ-पलिता:) = क्षोभ आदि व जीर्णता से पलित [भूरे से] न हो जाएँ। (दन्ता: अशेणाः) = [शोण गतौ]-दाँत हिल न जाएँ अथवा मलिन होकर रक्त से वर्ण के न हो जाएँ। मेरी (बाह्वोः) = भुजाओं में (बहु बलम्) = बहुत बल हो।
भावार्थ - मैं सांग व अजीर्ण-शक्ति होता हुआ यज्ञादि उत्तम कर्म करता रहूँ।
इस भाष्य को एडिट करें