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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 63

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 63/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - विराडुपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - आयुवर्धन सूक्त

    उत्ति॑ष्ठ ब्रह्मणस्पते दे॒वान्य॒ज्ञेन॑ बोधय। आयुः॑ प्रा॒णं प्र॒जां प॒शून्की॒र्तिं यज॑मानं च वर्धय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत्। ति॒ष्ठ॒। ब्र॒ह्म॒णः॒। प॒ते॒। दे॒वान्। य॒ज्ञेन॑। बो॒ध॒य॒। आयुः॑। प्रा॒णम्। प्र॒ऽजाम्। प॒शून्। की॒र्तिम्। यज॑मानम्। च॒। व॒र्ध॒य॒ ॥६३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्तिष्ठ ब्रह्मणस्पते देवान्यज्ञेन बोधय। आयुः प्राणं प्रजां पशून्कीर्तिं यजमानं च वर्धय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। तिष्ठ। ब्रह्मणः। पते। देवान्। यज्ञेन। बोधय। आयुः। प्राणम्। प्रऽजाम्। पशून्। कीर्तिम्। यजमानम्। च। वर्धय ॥६३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 63; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के रक्षक ज्ञानी ब्राह्मण! (उत्तिष्ठ) = तू उठ खड़ा हो। आलस्य में न पड़ा रह अथवा केवल अपना वेदपाठ ही न करता रह। (यज्ञेन) = [संगतिकरण, दान] प्रजा के लोगों के सम्पर्क से तथा उन्हें ज्ञान देने के द्वारा-इस यज्ञ से (देवान् बोधय) = प्रजाओं में दिव्यवृत्तियों को जागरित कर। उन्हें देव बनाने का यत्न कर । 'प्रजाजनों को उत्तम आचरण की ओर प्रवृत्तिवाला करना' यह ब्राह्मण का सर्वमहान् कर्तव्य है। २. तू ज्ञान देने के द्वारा (आयु:) = आयु को, (प्राणम्) = प्राणशक्ति को, (प्रजाम्) = प्रजाओं-सन्तानों को, (पशून्) = उत्तम गवादि पशुओं को (कीर्तिम्) = यश को (च) = और (यजमानम्) = यज्ञशील पुरुष को (वर्धय) = बड़ा। उन बातों का तु ज्ञान दे जिनसे कि आयु आदि की वृद्धि हो।

    भावार्थ - ज्ञानी ब्राह्मण राष्ट्र में ज्ञान का प्रचार करता हुआ आयु, प्राण' आदि की वृद्धि का कारण बने।

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