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अथर्ववेद > काण्ड 19 > सूक्त 64

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  • अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - अग्निः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु सूक्त

    अग्ने॑ स॒मिध॒माहा॑र्षं बृह॒ते जा॒तवे॑दसे। स मे॑ श्र॒द्धां च॑ मे॒धां च॑ जा॒तवे॑दाः॒ प्र य॑च्छतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। स॒म्ऽइध॑म्। आ। अ॒हा॒र्ष॒म्। बृ॒ह॒ते। जा॒तऽवे॑दसे। सः। मे॒। श्र॒द्धाम्। च॒। मे॒धाम्। च॒। जा॒तऽवे॑दाः। प्र। य॒च्छ॒तु॒ ॥६४.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने समिधमाहार्षं बृहते जातवेदसे। स मे श्रद्धां च मेधां च जातवेदाः प्र यच्छतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। सम्ऽइधम्। आ। अहार्षम्। बृहते। जातऽवेदसे। सः। मे। श्रद्धाम्। च। मेधाम्। च। जातऽवेदाः। प्र। यच्छतु ॥६४.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने । (बृहते) = वृद्धि की कारणभूत, (जातवेदसे) = सब धनों [वेदस्-wealth] को उत्पन्न करनेवाले तेरे लिए मैं (समिधम् आहार्षम्) = समिन्धनसाधन काष्ठ को लाया हूँ, अर्थात् मैं इस यज्ञाग्नि की वृद्धि का कारणभूत व सब धनों का जन्मदाता समझकर यज्ञ में प्रवृत्त हुआ हूँ। २. (सः) = वह (जातवेदा:) = धनों का जन्मदाता अग्नि (मे) = मेरे लिए (श्रद्धाम्) = [श्रत, सत्यं दधाति] सत्यज्ञान को धारण करने की शक्ति को (च) = और (मेधां च) = ज्ञान को समझनेवाली बुद्धि को भी (प्रयच्छतु) = दे। अग्निहोत्र से सब वातावरण की पवित्रता के कारण 'श्रद्धा और मेधा' की प्रासि होती ही है।

    भावार्थ - हम वृद्धि के कारणभूत, सब धनों के दाता यज्ञाग्नि को अपने घरों में समिद्ध करें। यह मेरे लिए 'श्रद्धा और मेधा' को प्रास कराए।

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