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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 64/ मन्त्र 4
ए॒तास्ते॑ अग्ने स॒मिध॒स्त्वमि॒द्धः स॒मिद्भ॑व। आयु॑र॒स्मासु॑ धेह्यमृत॒त्वमा॑चा॒र्याय ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ताः। ते॒। अ॒ग्ने॒। स॒म्ऽइधः॑। त्वम्। इ॒द्धः। स॒म्ऽइत्। भ॒व॒। आयुः॑। अ॒स्मासु॑। धे॒हि॒। अ॒मृ॒त॒ऽत्वम्। आ॒ऽचा॒र्या᳡य ॥६४.४॥
स्वर रहित मन्त्र
एतास्ते अग्ने समिधस्त्वमिद्धः समिद्भव। आयुरस्मासु धेह्यमृतत्वमाचार्याय ॥
स्वर रहित पद पाठएताः। ते। अग्ने। सम्ऽइधः। त्वम्। इद्धः। सम्ऽइत्। भव। आयुः। अस्मासु। धेहि। अमृतऽत्वम्। आऽचार्याय ॥६४.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 4
विषय - 'आयुः अमृतत्वम्' आचार्याय
पदार्थ -
१. हे (अग्ने) = यज्ञाग्ने ! (एता:) = ये (ते) = तेरे लिए (समिधः) = समिधाएँ हैं। (त्वम्) = तू (इद्धः) = प्रज्वलित किया हुआ समित (भव) = सम्यक दीप्सिवाला हो [बृहत् शोच]।२.हे समिद्ध अग्ने! (अस्मास) = हममें (आयुः धेहि) = दीर्घजीवन को धारण कर तथा (अ-मृत त्वम्) = नीरोगता को धारण कर। यह दीर्घजीवन व नीरोगता (आचार्याय) = समन्तात् ज्ञान के चरण व सदाचार के ग्रहण के लिए हो। हम इस जीवन को जान-प्रधान बना पाएँ।
भावार्थ - हम अग्निकुण्ड में यज्ञाग्नि को समिद्ध करें। यह यज्ञाग्नि हमें नीरोगता व दीर्घजीवन दे। यह नीरोग दीर्घजीवन 'ज्ञान व सदाचार' के ग्रहण के लिए हो।
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