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अथर्ववेद - काण्ड 19/ सूक्त 64/ मन्त्र 2
इ॒ध्मेन॑ त्वा जातवेदः स॒मिधा॑ वर्धयामसि। तथा॒ त्वम॒स्मान्व॑र्धय प्र॒जया॑ च॒ धने॑न च ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒ध्मेन॑। त्वा॒। जा॒त॒ऽवे॒दः॒। स॒म्ऽइधा॑। व॒र्ध॒या॒म॒सि॒। तथा॑। त्वम्। अ॒स्मान्। व॒र्ध॒य॒। प्र॒ऽजया॑। च॒। धने॑न। च॒ ॥६४.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इध्मेन त्वा जातवेदः समिधा वर्धयामसि। तथा त्वमस्मान्वर्धय प्रजया च धनेन च ॥
स्वर रहित पद पाठइध्मेन। त्वा। जातऽवेदः। सम्ऽइधा। वर्धयामसि। तथा। त्वम्। अस्मान्। वर्धय। प्रऽजया। च। धनेन। च ॥६४.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 19; सूक्त » 64; मन्त्र » 2
विषय - यज्ञ से 'प्रजा व धन' की प्राप्ति
पदार्थ -
१. हे (जातवेदः) = सब धनों के जन्मदाता यज्ञाग्ने! हम (त्वा) = तुझे (इप्मेन) = ईंधन के साधनभूत (समिधा) = काष्ठ से (वर्धयामसि) = बढ़ाते हैं। २. जैसे हम तुझे समिधा से बढ़ाते हैं तथा उसी प्रकार (त्वम्) = तू (अस्मान्) = हमें प्रजया उत्तम सन्तानों से (च) = तथा (धनेन च) = धन से भी (वर्धय) = बढ़ा।
भावार्थ - अग्निहोत्र से उत्तम सन्तान व धन की प्राप्ति होती है।
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