अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - प्राणः, अपानः, आयुः
छन्दः - एदपदासुरीत्रिष्टुप्
सूक्तम् - बल प्राप्ति सूक्त
बल॑मसि॒ बलं॑ दाः॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठबल॑म् । अ॒सि॒ । बल॑म् । मे॒ । दा॒: । स्वाहा॑ ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
बलमसि बलं दाः स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठबलम् । असि । बलम् । मे । दा: । स्वाहा ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
विषय - बल
पदार्थ -
१. प्रभो ! (बलम् असि) = आप बलस्वरूप हैं। (मे) = मेरे लिए (बलं दा:) = बल प्रदान कीजिए। (स्वाहा) = मेरी वाणी सदा यही शुभ प्रार्थना करनेवाली हो। २. सहनशक्ति मन को बलवान् बनाती है। सहन के अभाव में मनुष्य की शक्ति दग्ध हो जाती है। मनुष्य इस मानस बल के अनुपात में ही रोगादि शत्रुओं पर विजय पानेवाला होता है, अत: हम प्रभु को 'बल' के रूप में स्मरण करें और उससे बल की याचना करें।
भावार्थ -
प्रभु 'बल' हैं। मैं भी बलवाला बनें।
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