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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 21

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 21/ मन्त्र 1
    सूक्त - अथर्वा देवता - सूर्यः छन्दः - एकावसानानिचृद्विषमात्रिपाद्गायत्री सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    सूर्य॒ यत्ते॒ तप॒स्तेन॒ तं प्रति॑ तप॒ यो॑३ ऽस्मान्द्वेष्टि॒ यं व॒यं द्वि॒ष्मः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑ । यत् । ते॒ । तप॑: । तेन॑ । तम् । प्रति॑ । त॒प॒ । य: । अ॒स्मान् । द्वेष्टि॑ । यम् । व॒यम् । द्वि॒ष्म: ॥२१.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्य यत्ते तपस्तेन तं प्रति तप यो३ ऽस्मान्द्वेष्टि यं वयं द्विष्मः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य । यत् । ते । तप: । तेन । तम् । प्रति । तप । य: । अस्मान् । द्वेष्टि । यम् । वयम् । द्विष्म: ॥२१.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 21; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    १,  २,  ३,  ४,  ५  एवं  मन्त्र संख्या के  केवल भावार्थ ही है |

    भावार्थ -

    सूर्य अपने तप आदि के द्वारा द्वेषियों के द्वेष को दूर करे । राष्ट्र में राजा भी सूर्य है। राजा सूर्य की भाँति निरन्तर सरण करते हुए सब लोगों को क्रिया-प्रवृत्त करता है, जिससे न वे खाली हों और न ही व्यर्थ के द्वेष आदि में पड़ें। समाज में ज्ञानी प्रचारक को भी सूर्य की भांति निरन्तर भ्रमण करते हुए ज्ञान के प्रकाश से अज्ञान-अन्धकार को दूर करना है, जिससे लोग द्वेष आदि आसुर भावनाओं को त्याज्य ही समझें।

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