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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    सूक्त - शम्भुः देवता - द्यावापृथिवी, आयुः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    इ॒मम॒ग्न आयु॑षे॒ वर्च॑से नय प्रि॒यं रेतो॑ वरुण मित्र राजन्। मा॒तेवा॑स्मा अदिते॒ शर्म॑ यच्छ॒ विश्वे॑ देवा ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । आयु॑षे । वर्च॑से । न॒य॒ । प्रि॒यम् । रेत॑: । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्रऽरा॒ज॒न् । मा॒ताऽइ॑व । अ॒स्मै॒ । अ॒दि॒ते॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । विश्वे॑ । दे॒वा॒: । ज॒रत्ऽअ॑ष्टि: । यथा॑ । अस॑त् ॥२८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममग्न आयुषे वर्चसे नय प्रियं रेतो वरुण मित्र राजन्। मातेवास्मा अदिते शर्म यच्छ विश्वे देवा जरदष्टिर्यथासत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । अग्ने । आयुषे । वर्चसे । नय । प्रियम् । रेत: । वरुण । मित्रऽराजन् । माताऽइव । अस्मै । अदिते । शर्म । यच्छ । विश्वे । देवा: । जरत्ऽअष्टि: । यथा । असत् ॥२८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. हे (अग्ने) = उन्नति के साधक प्रभो! (वरुण) = सब द्वेष आदि का निवारण करनेवाले! (मित्र) -= प्रमीति [मृत्यु व पाप] से बचानेवाले अथवा सबके प्रति स्नेह करनेवाले (राजन्) = हम सबके जीवन को शासित करनेवाले प्रभो! (इमम्) = इस हमारी सन्तान को आयुषे दीर्घजीवन के लिए, (वर्चसे) = रोगों से संघर्ष करने में समर्थ शक्ति के लिए (प्रियं रेत:) = तृप्ति व कान्ति को देनेवाले[प्री तर्पणे कान्तौ च] रेतस् को-वीर्य को (नय) = प्राप्त कराइए। इस रेतस् को प्राप्त करके यह रोगों को पराजित करता हुआ दीर्घजीवन प्राप्त करे। २. हे (अदिते) = पृथिवी अथवा स्वास्थ्य की अधिष्ठातृदेवते! तू (माता इव) = माता के समान अस्मै इसके लिए (शर्म यच्छ) = कल्याण प्राप्त करा

    और (विश्वेदेवा:) = हे सब देवो! आप भी ऐसी कृपा करो (यथा) = जिससे यह (जरदष्टिः) = वृद्धावस्था तक कार्यों में (व्याप्सिवाला) = [जीर्यतोऽपि अष्टि: सर्वव्यापारविषया व्याप्तिर्यस्य-सा०] (असत्) = हो। इसका जीवन अन्त तक बड़ा क्रियाशील बना रहे।

    भावार्थ -

    हम अग्नि, मित्र, वरुण व राजा की कृपा से दीर्घजीवी बनें।

    सूचना -

    प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु को अग्नि आदि नामों से स्मरण करना यह सूचित करता है कि दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि [क] हम क्रियाशील हों [अग्नि, अगि गतौ], [ख] द्वेष से ऊपर उठे [वरुण-वारयति], [ग] सबके लिए स्नेहवाले हों [मित्र, मिद, स्नेहने], [घ] राजन-[राज दीप्तौं] ज्ञान-दीस व व्यवस्थित जीवनवाले हों।

    विशेष-सम्पूर्ण सूक्त दीर्घ जीवन के साधनों का उल्लेख कर रहा है। अगले सूक्त का विषय भी यही है, ऋषि'अथर्वा' है-स्थिर चित्तवृत्तिवाला [न थर्वति]। चित्तवृत्ति की स्थिरता दीर्घजीवन के लिए आवश्यक ही है -

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