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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 5
    ऋषिः - शम्भुः देवता - द्यावापृथिवी, आयुः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
    83

    इ॒मम॒ग्न आयु॑षे॒ वर्च॑से नय प्रि॒यं रेतो॑ वरुण मित्र राजन्। मा॒तेवा॑स्मा अदिते॒ शर्म॑ यच्छ॒ विश्वे॑ देवा ज॒रद॑ष्टि॒र्यथास॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । अ॒ग्ने॒ । आयु॑षे । वर्च॑से । न॒य॒ । प्रि॒यम् । रेत॑: । व॒रु॒ण॒ । मि॒त्रऽरा॒ज॒न् । मा॒ताऽइ॑व । अ॒स्मै॒ । अ॒दि॒ते॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒ । विश्वे॑ । दे॒वा॒: । ज॒रत्ऽअ॑ष्टि: । यथा॑ । अस॑त् ॥२८.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इममग्न आयुषे वर्चसे नय प्रियं रेतो वरुण मित्र राजन्। मातेवास्मा अदिते शर्म यच्छ विश्वे देवा जरदष्टिर्यथासत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । अग्ने । आयुषे । वर्चसे । नय । प्रियम् । रेत: । वरुण । मित्रऽराजन् । माताऽइव । अस्मै । अदिते । शर्म । यच्छ । विश्वे । देवा: । जरत्ऽअष्टि: । यथा । असत् ॥२८.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्नितत्त्व, (वरुण) हे जलतत्त्व ! (राजन्) हे बड़ी शक्तिवाले (मित्र) चेष्टा करानेवाले प्राणवायु ! (इमम्) इस पुरुष को (आयुषे) आयु [बढ़ाने] के लिये और (वर्चसे) तेज वा अन्न के लिये (प्रियम्) प्रसन्न करनेवाला (रेतः) वीर्य वा सामर्थ्य (नय) प्राप्त करा। (अदिते) हे अदीन वा अखण्ड प्रकृति वा भूमि ! (माता इव) माता के समान (अस्मै) इस जीव को (शर्म) आनन्द (यच्छ) दान कर। (विश्वे) हे सब (देवाः) दिव्य पदार्थ वा महात्माओं ! (यथा) जिससे [यह पुरुष] (जरदष्टिः) स्तुति के साथ प्रवृत्ति वा भोजनवाला (असत्) होवे ॥५॥

    भावार्थ

    मनुष्य अग्नि, जल, वायु और पृथिवी तत्त्वों को प्रयत्नपूर्वक उचित खान-पान ब्रह्मचर्यादि के नियमपालन से अनुकूल रक्खे, जिससे शरीर की पुष्टि और आत्मा की उन्नति करके उत्साही और यशस्वी होवे ॥५॥

    टिप्पणी

    टिप्पणी–बम्बई गवर्नमेन्ट पुस्तक की संहिता और पदपाठ में [मित्र–राजन्] एक पद है, परन्तु सायणभाष्य और अन्य दो पुस्तकों में (मित्र राजन्) दो पद हैं, वही हमने लिये हैं ॥ ५–इमम्। प्राणिनम्। अग्ने। हे अग्नितत्त्व। आयुषे। एतेर्णिच्च। उ० २।११८। इति इण् गतौ–उसि। जीवनवर्धनाय। वर्चसे। अ० २।१३।२। तेजसे। अन्नाय। नय। प्रापय। द्विकर्मकः। प्रियम्। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति प्रीङ् प्रीतौ कः। अचि श्नुधातुभ्रुवां० पा० ६।४।७७। इयङादेशः। हितकरम्। रेतः। स्रुरीभ्यां तुट् च। उ० ४।२०२। इति रीङ् क्षरणे–असुन्, तुट् च। शुक्रम्। वीर्यम्। प्रजननसामर्थ्यम्। वरुण। कॄवृदारिभ्य उनन्। उ० ३।५३। इति वृञ् वरणे–उनन्। उत्तमं जलमिति दयानन्दसरस्वती तद्वृत्तौ। अपानवायुः–यथा। ब्रह्माण्डस्थौ गमनागमनशीलौ मित्रावरुणौ प्राणापानौ–इति दयानन्दकृतयजुर्वेदभाष्ये, २।३। तत्संबुद्धौ। मित्र। हे प्राणवायो यथा पूर्वोक्तम्। राजन्। कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ० १।१५६। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये–कनिन्। राजति=ईष्टे–निघ० २।२१। हे दीप्यमान, हे ऐश्वर्यवत्। मातेव। जननीव। अस्मै। प्राणिने। अदिते। म० ४। हे प्रकृते। भूमे। शर्म। अ० १।२०।३। शॄ हिंसायाम्–मनिन्। गृहम्। निघं० ३।४। सुखम्–निघ० ३।६। यच्छ। देहि। विश्वे। सर्वे। देवाः। दिव्याः पदार्थाः पुरुषा वा। जरदष्टिः। जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। इति बाहुलकाद् जरतेः स्तुतिकर्मणः–अतृन्। अशू व्याप्तौ, अश भोजने–क्तिन् जरता स्तुत्या सह अष्टिः कार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य सः। यथा। येन प्रकारेण। असत्। अस्तेर्लेटि अडागमः। भवेत् ॥

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    विषय

    अग्नि, मित्र, वरुण

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = उन्नति के साधक प्रभो! (वरुण) = सब द्वेष आदि का निवारण करनेवाले! (मित्र) -= प्रमीति [मृत्यु व पाप] से बचानेवाले अथवा सबके प्रति स्नेह करनेवाले (राजन्) = हम सबके जीवन को शासित करनेवाले प्रभो! (इमम्) = इस हमारी सन्तान को आयुषे दीर्घजीवन के लिए, (वर्चसे) = रोगों से संघर्ष करने में समर्थ शक्ति के लिए (प्रियं रेत:) = तृप्ति व कान्ति को देनेवाले[प्री तर्पणे कान्तौ च] रेतस् को-वीर्य को (नय) = प्राप्त कराइए। इस रेतस् को प्राप्त करके यह रोगों को पराजित करता हुआ दीर्घजीवन प्राप्त करे। २. हे (अदिते) = पृथिवी अथवा स्वास्थ्य की अधिष्ठातृदेवते! तू (माता इव) = माता के समान अस्मै इसके लिए (शर्म यच्छ) = कल्याण प्राप्त करा

    और (विश्वेदेवा:) = हे सब देवो! आप भी ऐसी कृपा करो (यथा) = जिससे यह (जरदष्टिः) = वृद्धावस्था तक कार्यों में (व्याप्सिवाला) = [जीर्यतोऽपि अष्टि: सर्वव्यापारविषया व्याप्तिर्यस्य-सा०] (असत्) = हो। इसका जीवन अन्त तक बड़ा क्रियाशील बना रहे।

    भावार्थ

    हम अग्नि, मित्र, वरुण व राजा की कृपा से दीर्घजीवी बनें।

    सूचना

    प्रस्तुत मन्त्र में प्रभु को अग्नि आदि नामों से स्मरण करना यह सूचित करता है कि दीर्घजीवन के लिए आवश्यक है कि [क] हम क्रियाशील हों [अग्नि, अगि गतौ], [ख] द्वेष से ऊपर उठे [वरुण-वारयति], [ग] सबके लिए स्नेहवाले हों [मित्र, मिद, स्नेहने], [घ] राजन-[राज दीप्तौं] ज्ञान-दीस व व्यवस्थित जीवनवाले हों।

    विशेष-सम्पूर्ण सूक्त दीर्घ जीवन के साधनों का उल्लेख कर रहा है। अगले सूक्त का विषय भी यही है, ऋषि'अथर्वा' है-स्थिर चित्तवृत्तिवाला [न थर्वति]। चित्तवृत्ति की स्थिरता दीर्घजीवन के लिए आवश्यक ही है -

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    भाषार्थ

    (अग्ने) हे जगदग्रणी परमेश्वर ! (इमम्) इस ब्रह्मचारी को ( आयुषे) स्वस्थ तथा दीर्घायु के लिए, (वर्चसे) तथा तेज के लिए (नय) ले चल, माग दर्शा, (राजन्) ब्रह्मचर्याश्रम के राजारूप ! (मित्र वरुण ) हे मित्ररूप ! और वरुणरूप ! आचार्य ! ब्रह्मचारी के प्रति (प्रियम्, रेतः) प्रिय वीर्य (नय ) तू प्राप्त करा । (अदिते) हे पृथिवी ! (अस्मै) इस ब्रह्मचारी के लिये (माता इव) माता के सदृश (शर्म यच्छ) सुख प्रदान कर, (विश्वे देवा:) हे सब देवो! (यथा) जिस प्रकार कि यह ब्रह्मचारी (जरदष्टि: असत्) जरावस्था को प्राप्त होनेवाला हो जाए।

    टिप्पणी

    [अग्ने= अग्निः अग्रणीर्भवति (निरुक्त ७।४।१४)। प्रियम् रेत:= इससे ब्रह्मचारी युवावस्था का प्रतीत होता है जबकि वीर्यरक्षा पर विशेष चिन्ता चाहिए। वरुण है आचार्य (अथर्व० ११।५।१४, १५)। मित्र = स्नेह करनेवाला आचार्य। अदितिः पूथिवीनाम (निघं० १।९)। विश्वे देवाः= ब्रह्मचर्याश्रम के सब दिव्य अध्यापक।]

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    विषय

    दीर्घायु की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    हे अग्ने ! देव ! (इमम्) इस पुत्र को (आयुषे) दीर्घ आयु और (वर्चसे) तेज और बल प्राप्त करने के लिये (नय) सन्मार्ग से ले चल। हे वरुण ! हे मित्र ! हे राजन् ! यह हमारा ही (प्रियं) प्रिय (रेतः) वीर्य है, इसलिये हे (अदिते) अखंडचरित्रा पृथिवी ! आप (माता इव) माता के समान (अस्मा) इसको (शर्म) सुख और शरण (यच्छ) दो। और हे (विश्वे देवाः) समस्त विद्वान् पुरुषों और दिव्य पदार्थों ! आपके बल पर यह (यथा) जिस प्रकार (जरदृष्टिः) जराकाल तक जीवन यापन करने वाला (असत्) हो।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘प्रियो रेतो’, ‘कृधि प्रियं’ तै० सं०। ‘तिग्मौजाः वरुण’ इति मै० स० । वरुण ‘संशिशाधि ‘ इति तै० आ० (तृ०) ‘शर्म यंसत’, इति शा० गृ० सू०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शम्भुर्ऋषिः। जरिमायुर्देवता। १ जगती। २-४ त्रिष्टुभः। ५ भुरिक्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Good Health, Full Age

    Meaning

    Divine Agni, lord self-refulgent, lead him on to life’s vitality and splendour through full age. O refulgent sun and oceans, O prana and apana energies, bring him the cherished vitality and virility of glowing health. O Mother Nature, like the mother as you are, bless him with peace and joy so that, O divinities of the world of nature and humanity, he may live a long life till full age and fulfilment of his life’s mission.

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    Translation

    O fire-divine, may you lead this man to long life and splendour. O venerable and friendly Lord, may you equip him with coveted power of virility. O earth, like a mother may you provide him shelter. O all the bounties of Nature, may you arrange so that he reaches the good old age (jaradasti).

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    Translation

    Let the worldly and bodily fire lead this child and splendor, let the brilliant inhaling and exhaling breaths treat him, the dear child (or the lovely semen drop) of parent. Let the earth give him pleasure like mother and let all the physical forces help him in such a manner that the cloud lead his life, till old age.

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    Translation

    O fire, water, Prana and king, grant this child power of procreation, and -lead him on the right path, for longevity and virility. O vast Earth, grant this child mother-like shelter. O learned persons and forces of nature help the child to live long.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    टिप्पणी–बम्बई गवर्नमेन्ट पुस्तक की संहिता और पदपाठ में [मित्र–राजन्] एक पद है, परन्तु सायणभाष्य और अन्य दो पुस्तकों में (मित्र राजन्) दो पद हैं, वही हमने लिये हैं ॥ ५–इमम्। प्राणिनम्। अग्ने। हे अग्नितत्त्व। आयुषे। एतेर्णिच्च। उ० २।११८। इति इण् गतौ–उसि। जीवनवर्धनाय। वर्चसे। अ० २।१३।२। तेजसे। अन्नाय। नय। प्रापय। द्विकर्मकः। प्रियम्। इगुपधज्ञाप्रीकिरः कः। पा० ३।१।१३५। इति प्रीङ् प्रीतौ कः। अचि श्नुधातुभ्रुवां० पा० ६।४।७७। इयङादेशः। हितकरम्। रेतः। स्रुरीभ्यां तुट् च। उ० ४।२०२। इति रीङ् क्षरणे–असुन्, तुट् च। शुक्रम्। वीर्यम्। प्रजननसामर्थ्यम्। वरुण। कॄवृदारिभ्य उनन्। उ० ३।५३। इति वृञ् वरणे–उनन्। उत्तमं जलमिति दयानन्दसरस्वती तद्वृत्तौ। अपानवायुः–यथा। ब्रह्माण्डस्थौ गमनागमनशीलौ मित्रावरुणौ प्राणापानौ–इति दयानन्दकृतयजुर्वेदभाष्ये, २।३। तत्संबुद्धौ। मित्र। हे प्राणवायो यथा पूर्वोक्तम्। राजन्। कनिन् युवृषितक्षिराजि०। उ० १।१५६। इति राजृ दीप्तौ, ऐश्वर्ये–कनिन्। राजति=ईष्टे–निघ० २।२१। हे दीप्यमान, हे ऐश्वर्यवत्। मातेव। जननीव। अस्मै। प्राणिने। अदिते। म० ४। हे प्रकृते। भूमे। शर्म। अ० १।२०।३। शॄ हिंसायाम्–मनिन्। गृहम्। निघं० ३।४। सुखम्–निघ० ३।६। यच्छ। देहि। विश्वे। सर्वे। देवाः। दिव्याः पदार्थाः पुरुषा वा। जरदष्टिः। जीर्यतेरतृन्। पा० ३।२।१०४। इति बाहुलकाद् जरतेः स्तुतिकर्मणः–अतृन्। अशू व्याप्तौ, अश भोजने–क्तिन् जरता स्तुत्या सह अष्टिः कार्यव्याप्तिर्भोजनं वा यस्य सः। यथा। येन प्रकारेण। असत्। अस्तेर्लेटि अडागमः। भवेत् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে জগদগ্রণী পরমেশ্বর ! (ইমম্) এই ব্রহ্মচারীকে (আয়ুষে) সুস্থ এবং দীর্ঘায়ুর জন্য, (বর্চসে) এবং তেজের জন্য (নয়) নিয়ে চলো, মার্গ প্রদর্শন করাও, (রাজন) ব্রহ্মচর্যাশ্রমের রাজারূপ ! (মিত্র বরুণ) হে মিত্ররূপ ! এবং বরুণরূপ ! আচার্য ! ব্রহ্মচারীর প্রতি (প্রিয়ম, রেতঃ) প্রিয় বীর্য (নয়) তুমি প্রাপ্ত করাও। (অদিতে) হে পৃথিবী ! (অস্মৈ) এই ব্রহ্মচারীর জন্য (মাতা ইব) মাতার সদৃশ (শর্ম যচ্ছ) সুখ প্রদান করো, (বিশ্বে দেবাঃ) হে সকল দেবগণ ! (যথা) যাতে এই ব্রহ্মচারী (জরদষ্টিঃ অসৎ) জরাবস্থা প্রাপ্তকারী হয়ে যায়/হয়।

    टिप्पणी

    [অগ্নি=অগ্নিঃ অগ্রণীর্ভবতি (নিরুক্ত ৭।৪।১৪)। প্রিয়ম্ রেতঃ= ব্রহ্মচারী যুবাবস্থার প্রতীত হয় যখন বীর্য রক্ষার জন্য বিশেষ চিন্তা হওয়া উচিত। বরুণ হল আচার্য (অথর্ব০ ১১।৫।১৪, ১৫) । মিত্র= স্নেহকারী আচার্য। অদিতিঃ পৃথিবীনাম (নিঘং০ ১।১)। বিশ্বে দেবাঃ= ব্রহ্মচর্যাশ্রমের সকল দিব্য অধ্যাপক।]

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    मन्त्र विषय

    বুদ্ধ্যা বিবাদঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    (অগ্নে) হে অগ্নিতত্ত্ব, (বরুণ) হে জলতত্ত্ব ! (রাজন্) হে বড়ো/পরম শক্তিসম্পন্ন (মিত্র) মিত্র প্রাণবায়ু ! (ইমম্) এই পুরুষকে (আয়ুষে) আয়ু [বৃদ্ধির] জন্য এবং (বর্চসে) তেজ বা অন্নের জন্য (প্রিয়ম্) প্রসন্নকারী (রেতঃ) বীর্য বা সামর্থ্য (নয়) প্রাপ্ত করাও। (অদিতে) হে অদীন বা অখণ্ড প্রকৃতি বা ভূমি ! (মাতা ইব) মাতার সমান (অস্মৈ) এই জীবকে (শর্ম) আনন্দ (যচ্ছ) দান করো। (বিশ্বে) হে সকল (দেবাঃ) দিব্য পদার্থ বা মহাত্মাগণ ! (যথা) যাতে [এই পুরুষ] (জরদষ্টিঃ) স্তুতির সাথে প্রবৃত্তি বা ভোজনবিলাসী (অসৎ) হয় ॥৫॥

    भावार्थ

    মনুষ্য অগ্নি, জল, বায়ু ও পৃথিবী তত্ত্বকে প্রয়ত্নপূর্বক সঠিক ভোজন-পানীয় ব্রহ্মচর্যাদির নিয়মপালন দ্বারা অনুকূল রাখুক, যাতে শরীরের পুষ্টি ও আত্মার উন্নতি করে উৎসাহী এবং যশস্বী হয় ॥৫॥ মুম্বাঈ গভর্নমেন্ট পুস্তকের সংহিতা এবং পদপাঠে [মিত্র–রাজন্] এক পদ আছে, কিন্তু সায়ণভাষ্য এবং অন্য দুটি পুস্তকে (মিত্র রাজন্) দুটি পদ আছে, তা আমি গ্রহণ করেছি ॥

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