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अथर्ववेद के काण्ड - 2 के सूक्त 28 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 28/ मन्त्र 4
    ऋषिः - शम्भुः देवता - द्यावापृथिवी, आयुः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
    75

    द्यौष्ट्वा॑ पि॒ता पृ॑थि॒वी मा॒ता ज॒रामृ॑त्युं कृणुतां संविदा॒ने। यथा॒ जीवा॒ अदि॑तेरु॒पस्थे॑ प्राणापा॒नाभ्यां॑ गुपि॒तः श॒तं हिमाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यौ: । त्वा॒ । पि॒ता । पृ॒थि॒वी । मा॒ता । ज॒राऽमृ॑त्युम् । कृ॒णु॒ता॒म् । सं॒वि॒दा॒ने इति॑ स॒म्ऽवि॒दा॒ने । यथा॑ । जीवा॑: । अदि॑ते: । उ॒प‍स्थे॑ । प्रा॒णा॒पा॒नाभ्या॑म् । गु॒पि॒त: । श॒तम् । हिमा॑: ॥२८.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्यौष्ट्वा पिता पृथिवी माता जरामृत्युं कृणुतां संविदाने। यथा जीवा अदितेरुपस्थे प्राणापानाभ्यां गुपितः शतं हिमाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्यौ: । त्वा । पिता । पृथिवी । माता । जराऽमृत्युम् । कृणुताम् । संविदाने इति सम्ऽविदाने । यथा । जीवा: । अदिते: । उप‍स्थे । प्राणापानाभ्याम् । गुपित: । शतम् । हिमा: ॥२८.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 28; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (5)

    विषय

    बुद्धि से विवाद करे, इसका उपदेश।

    पदार्थ

    (पिता) पिता [के समान रक्षक] (द्यौः) सूर्यलोक और (माता) [के समान प्रीति करनेवाली] (पृथिवी) पृथिवीलोक, (संविदाने) दोनों मिले हुए, (त्वा) तुझको (जरामृत्युम्=जरा–अमृत्युं जरा–मृत्युं वा) स्तुति के साथ अमर, अथवा, स्तुति वा बुढ़ापे से मृत्युवाला (कृणुताम्) करें। (यथा) जिससे (अदितेः) अखण्ड परमेश्वर [अथवा अदीन प्रकृति, वा पृथिवी] की (उपस्थे) गोद में (प्राणापानाभ्याम्) प्राण और अपान से (गुपितः) रक्षा किया हुआ तू (शतम्) सौ (हिमाः) हेमन्त ऋतुओं तक (जीवाः) जीता रहे ॥४॥

    भावार्थ

    पुरुषार्थी पुरुष प्रबन्ध रक्खे कि सूर्य का तेज और आकर्षण आदि सामर्थ्य और पृथिवी की अन्न आदि की उत्पादनादि शक्ति और अन्य सब पदार्थ अनुकूल रहें, जैसे माता-पिता सन्तानों पर प्रीति रखते हैं, जिससे वह पुरुष परमेश्वर के अनुग्रह से पृथिवी पर यशस्वी होकर पूर्ण आयु भोगे ॥४॥

    टिप्पणी

    ४–द्यौः। अ० २।१२।६। द्योतमानः सूर्यः। त्वा। त्वां प्राणिनम्। पिता। अ० १।२।१। रक्षकः। जनकः। तद्वदुपकारकः। पृथिवी। अ० १।२।१। प्रख्याता भूमिः। माता। अ० १।२।१। मानकर्त्री, जननी। जरामृत्युम्। व्याख्यातं म० २। यशस्विनं कृणुताम्। कुरुताम्। संविदाने। मं० २। ऐक्यमते प्राप्ते। यथा। यस्मात् कारणात्। जीवाः। जीव प्राणधारणे–लेटि आडागमः। त्वं जीवेः। प्राणान् धरेः। अदितेः। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति दीङ् क्षये, दो अवखण्डने, दाप् लवने–क्तिन्। द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति। पा० ७।४।४०। इति इत्वम्। दीङ् पक्षे ह्रस्वत्वं, नञ्समासः। अदितिः पृथिवी–निघ० १।१। वाक्–निघ० १।११। गौः–निघ० २।११। अदीना देवमाता–निरु० ४।२२। मध्यस्थानदेवतासु “प्रथमगामिनी–” निरु० ११।२२। अक्षीणस्य अखण्डस्य वा परमेश्वरस्य, अथवा अदीनाया देवमातुः, मनुष्यसूर्यादिदिव्यपदार्थानां जनन्याः प्रकृतेः पृथिव्या वा। उपस्थे। क्रोडे। उत्सङ्गे। प्राणापानाभ्याम्। म० ३। श्वासनिःश्वासाभ्याम्। गुपितः। गुपू रक्षणे–क्त। रक्षितः। शतम्। अपरिमिताः। हिमाः। हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। इति हन हिंसागत्योः–मक्। अर्शआद्यच्–टाप्। हिमं तुषारोऽस्ति यस्याम्। हेमन्तान् संवत्सरान्। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया ॥

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    विषय

    द्यलोक व पृथिवीलोक का ऐकमत्य

    पदार्थ

    १. (त्वा) = तुझे पिता (द्यौः) = पितृस्थानापन्न झुलोक तथा (माता पृथिवी) = मातृस्थानापन्न पृथिवी (संविदाने) = परस्पर ऐकमत्यवाली होकर (जरामृत्यु कृणुताम्) = पूर्ण जरावस्था में ही मृत्युवाला, अर्थात् दीर्घजीवी करें। धुलोक तथा पृथिवीलोक की अनुकूलता तेरे दीर्घायुष्य का कारण हो। शरीर में मस्तिष्क ही झुलोक है तथा शरीर ही पृथिवी है। मस्तिष्क द्युलोक की भाँति ज्ञान से देदीप्यमान हो तथा शरीर पृथिवी की भौति दृढ़ हो। ऐसा होने पर दीर्घजीवन होना सम्भव है। २. तुझे झुलोक व पृथिवीलोक की अनुकूलता प्राप्त हो (यथा) = जिससे कि तू (अदितेः उपस्थे) = इस पृथिवी की गोद में[अदिति-अखण्डन, स्वास्थ्य का न टूटना] स्वास्थ्य की गोद में (प्राणापानाभ्यां गुपित:) = प्राणापान से रक्षित (हुआ) = हुआ (शतं हिमा:) = पूरे सौ वर्ष (जीवा:) जीनेवाला हो।

    भावार्थ

    हम झुलोक व पृथिवीलोक की अनुकूलता से सौ वर्ष तक जीनेवाले बनें। प्राणापान से रक्षित होकर हम दीर्घजीवी हों।

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    पदार्थ

    शब्दार्थ = हे मनुष्य ! ( त्वा ) = तुमको  ( द्यौः पिता ) = द्युलोकपिता  ( पृथिवी माता ) = माता रूप पृथिवी  ( संविदाने ) = आपस में एकता को प्राप्त हुए  ( जरा मृत्युं कृणुताम्  ) = वृद्धावस्था पूर्वक मृत्यु को करें अर्थात् दीर्घ आयुवाला करें  ( अदितेः ) = अखण्डनीय पृथिवी की  ( उपस्थे ) = गोद में  ( प्राणापांनाभ्यां गुपितः ) = प्राण - अपान से रक्षित हुआ  ( शतं हिमा: ) = सौ वर्ष पर्यन्त  ( यथा जीवा: ) = जिस प्रकार से तू जीवन धारण करे वैसे तुझे द्युलोक और पृथिवी दीर्घ आयुवाला करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ = परमेश्वर मनुष्य को आशीर्वाद देते हैं कि, हे मनुष्य ! जैसे पुरुष अपनी माता से उत्पन्न होकर उस माता कि गोद में स्थित रहता है और अपने पिता से पालन पोषण को प्राप्त होता है, ऐसे ही पृथिवी रूपी माता से उत्पन्न हो कर, उस पृथिवी की गोद में रहता हुआ तू मनुष्य, द्युलोक रूप पिता से पालन पोषण को प्राप्त हो रहा है । द्युलोक और पृथिवी तेरे अनुकूल हुए, सौ वर्ष पर्यन्त जीने में सहायता करें। तू सारी आयु में अच्छे-अच्छे कर्म करता हुआ, ब्रह्मज्ञान और प्रभु-भक्ति द्वारा मोक्ष-सुख को प्राप्त हो ।

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    भाषार्थ

    हे ब्रह्मचारिन् ! (द्यौ:) द्युलोक (पिता) पिता और (पृथिवी माता) पृथिवी माता, ये दोनों (संविदाने ) परस्पर एकमतिवाले हुए (त्वा=त्वाम्) तुझे (जरामृत्युम्) जरावस्था में मरनेवाला ( कृणुताम् ) करें, ( यथा) जिस प्रकार कि तू (अदितेः उपस्थे) पृथिवी की गोद में (प्राणापानाभ्याम् गुपितः) प्राण और अपान द्वारा सुरक्षित हुआ, (शतम् हिमाः) सौ शरद् ऋतु (जीवाः) जीवित रहे।

    टिप्पणी

    [अदितेः = अदितिः पृथिवीनाम (निघं० १।१)। जीवा: = जीवे:, लेटि आडागमः (सायण)। ब्रह्मचारी से कहा है कि तू निजजन्म-दाताओों को ही अपनी माता और पिता न जान, अपितु समग्र पृथिवी और द्यौः को माता-पिता जान । यतः तूने सबसे भिक्षा द्वारा विद्याग्रहण करना और जीवनचर्या करनी है, "भिक्षामाजभार" (अथर्व० ११।५।९)। इस द्वारा ब्रह्मचारी की दृष्टि को अधिक व्यापी किया है, ताकि गृहस्थ धारण कर वह समग्र समाज को माता-पिता जानकर, समाज की सेवा करने में तत्पर रहे।

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    विषय

    दीर्घायु की प्रार्थना ।

    भावार्थ

    (प्र०) ‘द्यौस्ते पिता’ (द्वि) ‘कृणुतां दीर्घमायुः’ (तृ०) यथा जीवा रित्या (दित्या) इति पैप्प० सं०।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘द्यौस्ते पिता’ (द्वि) ‘कृणुतां दीर्घमायुः’ (तृ०) यथा जीवा रित्या (दित्या) इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शम्भुर्ऋषिः। जरिमायुर्देवता। १ जगती। २-४ त्रिष्टुभः। ५ भुरिक्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Good Health, Full Age

    Meaning

    Let heaven, the father, and earth, the mother, both operative in unison, protect you through full age to fulfilment till death so that, sustained by the energies of prana and apana, you live a life of full hundred years in the lap of mother nature.

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    Subject

    Dyāvā-Prthvī

    Translation

    May heaven, your father and the earth, your the mother accordant with each other, enable you to die of old age only, so that you may live in the lap of the earth, well protected by inbreath (prāņa) and out-breath (apna) for a hundred winters. (Satam himāh).

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    Translation

    O’ child; let Sun your father and let the earth your mother Operating accordantly give you death after old age only, not before you attain the life of hundred autumns through your respiratory breaths as the Jivas, living creatures Preserved in the womb of earth in the beginning stage of creation.

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    Translation

    O child, may thy father, resplendent like the Sun, and thy mother, broadminded like the Earth, in unison, make thee leave this body in old age. May thou resting in the lap of Nature, protected by Prana and Apana, live for a hundred winters.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४–द्यौः। अ० २।१२।६। द्योतमानः सूर्यः। त्वा। त्वां प्राणिनम्। पिता। अ० १।२।१। रक्षकः। जनकः। तद्वदुपकारकः। पृथिवी। अ० १।२।१। प्रख्याता भूमिः। माता। अ० १।२।१। मानकर्त्री, जननी। जरामृत्युम्। व्याख्यातं म० २। यशस्विनं कृणुताम्। कुरुताम्। संविदाने। मं० २। ऐक्यमते प्राप्ते। यथा। यस्मात् कारणात्। जीवाः। जीव प्राणधारणे–लेटि आडागमः। त्वं जीवेः। प्राणान् धरेः। अदितेः। कृत्यल्युटो बहुलम्। पा० ३।३।११३। इति दीङ् क्षये, दो अवखण्डने, दाप् लवने–क्तिन्। द्यतिस्यतिमास्थामित्ति किति। पा० ७।४।४०। इति इत्वम्। दीङ् पक्षे ह्रस्वत्वं, नञ्समासः। अदितिः पृथिवी–निघ० १।१। वाक्–निघ० १।११। गौः–निघ० २।११। अदीना देवमाता–निरु० ४।२२। मध्यस्थानदेवतासु “प्रथमगामिनी–” निरु० ११।२२। अक्षीणस्य अखण्डस्य वा परमेश्वरस्य, अथवा अदीनाया देवमातुः, मनुष्यसूर्यादिदिव्यपदार्थानां जनन्याः प्रकृतेः पृथिव्या वा। उपस्थे। क्रोडे। उत्सङ्गे। प्राणापानाभ्याम्। म० ३। श्वासनिःश्वासाभ्याम्। गुपितः। गुपू रक्षणे–क्त। रक्षितः। शतम्। अपरिमिताः। हिमाः। हन्तेर्हि च। उ० १।१४७। इति हन हिंसागत्योः–मक्। अर्शआद्यच्–टाप्। हिमं तुषारोऽस्ति यस्याम्। हेमन्तान् संवत्सरान्। कालाध्वनोरत्यन्तसंयोगे। पा० २।३।५। इति द्वितीया ॥

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    बंगाली (3)

    পদার্থ

    দ্যৌষ্ট্বা পিতা পৃথিবী মাতা জরামৃত্যুং কৃণুতাং সংবিদানে। 

    য়থা জীবা অদিতেরূপস্থে প্রাণাপানাভ্যাং গুপিতঃ শতং হিমাঃ।।২৪।।

    (অথর্ব ২।২৮।৪)

    পদার্থঃ হে মনুষ্য! (ত্বা) তোমার (দ্যৌঃ পিতা) পিতৃস্থানীয় দ্যুলোক ও (পৃথিবী মাতা) মাতারূপ পৃথিবী (সংবিদানে) স্বয়ং একতা প্রাপ্ত হয়ে (জরা মৃত্যুম্ কৃণুতাম্) বৃদ্ধাবস্থা পূর্বক মৃত্যুকে নিয়ে আসুক অর্থাৎ তোমাকে দীর্ঘায়ুযুক্ত করুক। (অদিতেঃ) এই পৃথিবীর (উপস্থে) কোলে (প্রাণাপানাভ্যাং গুপিতঃ) প্রাণ অপান থেকে রহিত হয়ে (শতং হিমাঃ) শতবর্ষ পর্যন্ত (য়থা জীবাঃ) যেভাবে তুমি জীবনধারণ করো, সেভাবেই দ্যুলোক আর পৃথিবী তোমাকে দীর্ঘায়ু করুক ৷

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমেশ্বর মানুষদের আশীর্বাদ করছেন, হে মানুষ! যেভাবে কোন ব্যক্তি তার মা থেকে জন্ম নিয়ে তার মায়ের কোলে স্থির থাকে আর তার পিতা থেকে পালন পোষণ প্রাপ্ত হয়, ঠিক সেভাবেই পৃথিবীরূপী মাতা থেকে উৎপন্ন হয়ে এই পৃথিবীর কোলে থেকেই তুমি দ্যুলোকরূপ পিতা থেকে পালন পোষণ প্রাপ্ত হচ্ছ। দ্যুলোক আর পৃথিবী তোমার (জীবন ধারণের) অনুকূল হয়ে শতবর্ষ পর্যন্ত জীবিত থাকতে তোমায় সহায়তা করে।  তুমি পুরো আয়ুষ্কাল জুড়ে ভালো কর্ম করে ব্রহ্ম জ্ঞান দ্বারা মোক্ষ সুখ প্রাপ্ত হও ।।২৪।।

     

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    भाषार्थ

    হে ব্রহ্মচারী ! (দ্যৌঃ) দ্যুলোক (পিতা) পিতা এবং (পৃথিবী মাতা) পৃথিবী মাতা, এই উভয় (সংবিদানে) পরস্পর একমত হয়ে (ত্বা-ত্বাম) তোমাকে (জরামৃত্যুম্) জরাবস্থায় মরণশীল (কৃণুতাম্) করুক, (তথা) যাতে তুমি (অদিতেঃ উপস্থে) পৃথিবীর কোলে (প্রাণাপানাভ্যাম্ গুপিতঃ) প্রাণ এবং অপান দ্বারা সুরক্ষিত হয়ে, (শতং হিমাঃ) শত শরদ্ ঋতু (জীবাঃ) জীবিত থাকো।

    टिप्पणी

    [অদিতেঃ = অদিতিঃ পৃথিবীনাম (নিঘং০ ১।১)। জীবাঃ= লেটি আডাগমঃ (সায়ণ)। ব্রহ্মচারীকে বলা হয়েছে যে, তুমি নিজজন্ম-দাতাকেই কেবলমাত্র নিজের মাতা ও পিতা না জানো, বরং সমগ্র পৃথিবী এবং দ্যৌঃ-কে মাতা-পিতা জানো। যতঃ তোমাকে সকলের থেকে ভিক্ষা দ্বারা বিদ্যা গ্রহণ করতে হবে এবং জীবনচর্যা করতে হবে, “ভিক্ষামারাজভার" (অথর্ব০ ১১।৫।৯)। এর দ্বারা ব্রহ্মচারীর দৃষ্টিকে অধিক ব্যাপক করা হয়েছে, যাতে গৃহস্থ ধারণ করে সে সমগ্র সমাজকে মাতা-পিতা জেনে, সমাজের সেবা করার ক্ষেত্রে তৎপর থাকে।]

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    मन्त्र विषय

    বুদ্ধ্যা বিবাদঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে

    भाषार्थ

    (পিতা) পিতার [সমান রক্ষক] (দ্যৌঃ) সূর্যলোক ও (মাতা) [এর সমান প্রীতিকর] (পৃথিবী) পৃথিবীলোক, (সংবিদানে) দুই মিলে, (ত্বা) তোমাকে (জরামৃত্যুম্=জরা–অমৃত্যুং জরা–মৃত্যুং বা) স্তুতির সাথে অমর, অথবা, স্তুতি বা বৃদ্ধাবস্থা দ্বারা মৃত্যুসম্পন্ন (কৃণুতাম্) করুক। (যথা) যাতে (অদিতেঃ) অখণ্ড পরমেশ্বর [অথবা অদীন প্রকৃতি, বা পৃথিবী] এর (উপস্থে) কোলে (প্রাণাপানাভ্যাম্) প্রাণ ও অপান দ্বারা (গুপিতঃ) রক্ষিত তুমি (শতম্) শত (হিমাঃ) হেমন্ত ঋতু পর্যন্ত (জীবাঃ) জীবিত থাকো ॥৪॥

    भावार्थ

    পুরুষার্থী পুরুষ এমন ব্যবস্থা রাখুক যাতে, সূর্যের তেজ ও আকর্ষণ আদি সামর্থ্য এবং পৃথিবীর অন্ন আদির উৎপাদনাদি শক্তি, অন্য সকল পদার্থ অনুকূল থাকে, যেমন মাতা-পিতা সন্তানদের প্রতি প্রীতি রাখে, যাতে সেই পুরুষ পরমেশ্বরের অনুগ্রহপূর্বক পৃথিবীতে যশস্বী হয়ে পূর্ণ আয়ু ভোগ করে ॥৪॥

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