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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 35

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 3
    सूक्त - अङ्गिराः देवता - विश्वकर्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - विश्वकर्मा सूक्त

    अ॑दा॒न्यान्त्सो॑म॒पान्मन्य॑मानो य॒ज्ञस्य॑ वि॒द्वान्त्स॑म॒ये न धीरः॑। यदेन॑श्चकृ॒वान्ब॒द्ध ए॒ष तं वि॑श्वकर्म॒न्प्र मु॑ञ्चा स्व॒स्तये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒दा॒न्यान् । सो॒म॒ऽपान् । मन्य॑मान: । य॒ज्ञस्य॑ । वि॒द्वान् । स॒म्ऽअ॒ये । न । धीर॑: । यत् । एन॑: । च॒कृ॒वान् । ब॒ध्द: । ए॒ष: । तम् । वि॒श्व॒क॒र्म॒न् । प्र । मु॒ञ्च । स्वस्तये॑ ॥३५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अदान्यान्त्सोमपान्मन्यमानो यज्ञस्य विद्वान्त्समये न धीरः। यदेनश्चकृवान्बद्ध एष तं विश्वकर्मन्प्र मुञ्चा स्वस्तये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अदान्यान् । सोमऽपान् । मन्यमान: । यज्ञस्य । विद्वान् । सम्ऽअये । न । धीर: । यत् । एन: । चकृवान् । बध्द: । एष: । तम् । विश्वकर्मन् । प्र । मुञ्च । स्वस्तये ॥३५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (यज्ञस्य विद्वान्) = यज्ञा का ज्ञाता (समये) = [सम् आयन्ति संगच्छन्ते यत्र] एकत्र होने के स्थान में सभास्थल में (न धीर:) = धीरता से काम न लेनेवाला-अहंकारवश कुछ-का-कुछ बोल-देनेवाला (सोमपान्) = सोम का शरीर में रक्षण करनेवाले संयमी पुरुषों को भी (अदान्यान) = दान के अयोग्य (मन्यमान:) = मानता हुआ (यत्) = जो (एनः) = पाप (चकृवान्) = कर बैठता है, (एषः) = यह (बद्धः) = अहंकार के बन्धन में बंधा हुआ है। यज्ञ के विषय में ज्ञान रखता हुआ भी यह अभी अहंकार से ऊपर नहीं उठ पाया, तभी अपनी तुलना में औरों को हीन समझता है, उनका निरादर भी कर बैठता है। २. हे (विश्वकर्मन्) = कर्मों को सम्पूर्णता से करनेवाले प्रभो! आप (तम्) = उसे इस अंहकार से (प्रमुञ्च) = मुक्त कीजिए, जिससे (स्वस्तये) = उसका कल्याण हो। यह अहंकार उसके पतन का कारण न बन जाए।

    भावार्थ -

    वस्तुतः ज्ञानी व यज्ञशील वही है जो अहंकार रहित हो गया है। अहंकारयुक्त तो अभी बद्ध ही है।

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