अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 6/ मन्त्र 3
त्वाम॑ग्ने वृणते ब्राह्म॒णा इ॒मे शि॒वो अ॑ग्ने सं॒वर॑णे भवा नः। स॑पत्न॒हाग्ने॑ अभिमाति॒जिद्भ॑व॒ स्वे गये॑ जागृ॒ह्यप्र॑युछन् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । वृ॒ण॒ते॒ । ब्रा॒ह्म॒णा: । इ॒मे । शि॒व: । अ॒ग्ने॒ । स॒म्ऽवर॑णे । भ॒व॒ । न॒: । स॒प॒त्न॒ऽहा । अ॒ग्ने॒ । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽजित् । भ॒व॒ । स्वे । गये॑ । जा॒गृ॒हि॒ । अप्र॑ऽयुच्छन् ॥६.३॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने वृणते ब्राह्मणा इमे शिवो अग्ने संवरणे भवा नः। सपत्नहाग्ने अभिमातिजिद्भव स्वे गये जागृह्यप्रयुछन् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । अग्ने । वृणते । ब्राह्मणा: । इमे । शिव: । अग्ने । सम्ऽवरणे । भव । न: । सपत्नऽहा । अग्ने । अभिमातिऽजित् । भव । स्वे । गये । जागृहि । अप्रऽयुच्छन् ॥६.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 6; मन्त्र » 3
विषय - सदा जागरित-जागवि
पदार्थ -
१. (हे अग्रे) = अग्रणी राजन्! (इमे ब्राह्मणा:) = ये ज्ञानी पुरुष (त्वां वृणते) तेरा वरण करते हैं और वे चाहते हैं कि हे (अग्ने) = राजन्! (नः संवरणे) = हमसे संवृत्त [घिरा] हुआ तू (शिवः भव) = कल्याण स्वभाववाला तथा राष्ट्र का कल्याण करनेवाला हो। ज्ञानी ब्राह्मणों की शुभ मति में चलता हुआ राजा उत्तम जीवनवाला व राष्ट्र का कल्याण करनेवाला होगा ही। २. हे (अग्ने) = राजन्! तू (सपत्नहा) = शत्रुओं का हनन करनेवाला-शरीर का पति-स्वामी बनने की कामनावाला हो, रोग सपत्न हैं, उन्हें नष्ट करनेवाला हो, (अभिमातिजित्) = मन में उत्पन्न हो जानेवाले अभिमान को भी तू जीतनेवाला (भव) = हो। ३. (स्वे गये) = अपने राष्ट्ररूप गृह में (अप्रयुच्छन्) = किसी प्रकार का प्रमाद न करता हुआ तू (जागृहि) = सदा जागनेवाला हो। राजा शरीर में नीरोग तथा मन में निरभिमान बनकर राष्ट्ररूप घर के रक्षण में सदा अप्रमत्त रूप से जागरित हो।
भावार्थ -
ज्ञानी ब्राह्मणों से संवृत्त राजा नौरोग व निरभिमान बनकर राष्ट्र का उत्तम रक्षण करता है।
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