अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 6/ मन्त्र 4
सूक्त - शौनकः
देवता - अग्निः
छन्दः - चतुष्पदार्षी पङ्क्तिः
सूक्तम् - सपत्नहाग्नि
क्ष॒त्रेणा॑ग्ने॒ स्वेन॒ सं र॑भस्व मि॒त्रेणा॑ग्ने मित्र॒धा य॑तस्व। स॑जा॒तानां॑ मध्यमे॒ष्ठा राज्ञा॑मग्ने वि॒हव्यो॑ दीदिही॒ह ॥
स्वर सहित पद पाठक्ष॒त्रेण॑ । अ॒ग्ने॒ । स्वेन॑ । सम् । र॒भ॒स्व॒ । मि॒त्रेण॑ । अ॒ग्ने॒ । मि॒त्र॒ऽधा: । य॒त॒स्व॒ । स॒ऽजा॒ताना॑म् । म॒ध्य॒मे॒ऽस्था: । राज्ञा॑म् । अ॒ग्ने॒ । वि॒ऽहव्य॑: । दी॒दि॒हि॒ । इ॒ह ॥६.४॥
स्वर रहित मन्त्र
क्षत्रेणाग्ने स्वेन सं रभस्व मित्रेणाग्ने मित्रधा यतस्व। सजातानां मध्यमेष्ठा राज्ञामग्ने विहव्यो दीदिहीह ॥
स्वर रहित पद पाठक्षत्रेण । अग्ने । स्वेन । सम् । रभस्व । मित्रेण । अग्ने । मित्रऽधा: । यतस्व । सऽजातानाम् । मध्यमेऽस्था: । राज्ञाम् । अग्ने । विऽहव्य: । दीदिहि । इह ॥६.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 6; मन्त्र » 4
विषय - राष्ट्र-रक्षण
पदार्थ -
१.हे (अग्ने) = सेना का संचालन करनेवाले राजन् ! (स्वेन क्षत्रेण) = अपने राष्ट्र रक्षक क्षत्रीय वर्ग के साथ (सं रभस्व) = तू राष्ट्र-रक्षण के लिए सम्यक् उद्योगवाला हो। (मित्रधा:) = अपने मित्रों का धारण करनेवाला तू हे (अग्ने) = राजन्! (मित्रेण यतस्व) = अपने मित्रों के साथ मिलकर राष्ट्र-रक्षण के लिए यलशील हो। कई बार प्रबल शत्रु से राष्ट्र-रक्षण के प्रसंग में मित्रों की सहायता लेनी आवश्यक ही होती है। २. (सजातानाम्) = साथ ही विकास करनेवाले, समान आयुष्यवाले (राज्ञाम्) = राजाओं में तू (मध्यमेष्ठा:) = मध्य में स्थित होनेवाला हो, अर्थात् यदि कभी ऐसे दो राजाओं में कुछ संघर्ष पैदा हो जाए तो तू उनका झगड़ा निबटानेवाला बन । हे (अग्ने) = राजन्! तू (विहव्यः) = विशेषरूप से पुकारने योग्य होता हुआ इह-इस राष्ट्र में (दीदिहि) = चमकनेवाला हो। राजा की प्रतिष्ठा में राष्ट्र प्रतिष्ठित होता है। राजा की उन्नति से राष्ट्र की उन्नति आंकी जाती है।
भावार्थ -
सेना के उत्तम संचालन से राजा राष्ट्र की रक्षा करे। समान राजाओ में यह मध्यस्थता करने की योग्यतावाला हो। इसके कारण राष्ट्र की कीर्ति बढ़े।
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