अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 4
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - विराडनुष्टुप्
सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
नम॑स्ते॒ लाङ्ग॑लेभ्यो॒ नम॑ ईषायु॒गेभ्यः॑। वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । ते॒ । लाङ्ग॑लेभ्य: । नम॑: । ई॒षा॒ऽयु॒गेभ्य॑: । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.४॥
स्वर रहित मन्त्र
नमस्ते लाङ्गलेभ्यो नम ईषायुगेभ्यः। वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । ते । लाङ्गलेभ्य: । नम: । ईषाऽयुगेभ्य: । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 4
विषय - लाङ्गल, ईषा व युग'
पदार्थ -
१. गतमन्त्र में वर्णित ओषधियों को उत्पन्न करने में उपकरण बननेवाले (लागलेभ्यः) = हलों [Plough] के लिए (नमः) = नमस्कार करते हैं। ये हल (ते) = तेरे रोगशमन में परम्परागत कारण बनते हैं। (ईषा) = लाङ्गलदण्ड [Pole] व (युगेभ्यः) = जुए [yoke] के लिए भी (नम:) = हम आदर का भाव धारण करते हैं। इन उपकरणों के द्वारा भूमि से उत्पन्न हुई (वीरुत्) = बेल (क्षेत्रियनाशनी) = क्षेत्रिय रोगों को नष्ट करनेवाली है। यह क्षेत्रिय रोग को (अप उच्छन्तु) = दूर करनेवाली हो।
भावार्थ -
औषधियों के उत्पादन में उपकरणभूत 'लाङ्गल, ईषा व युग' आदि का उचित आदर करना चाहिए। उन्हें ठीक रखते हुए उचित रूप में उपयुक्त करना ही उनका आदर है।
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