अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - निचृत्पथ्यापङ्क्तिः
सूक्तम् - क्षेत्रियरोगनाशन
नमः॑ सनिस्रसा॒क्षेभ्यो॒ नमः॑ संदे॒श्ये॑भ्यः। नमः॒ क्षेत्र॑स्य॒ पत॑ये वी॒रुत्क्षे॑त्रिय॒नाश॒न्यप॑ क्षेत्रि॒यमु॑च्छतु ॥
स्वर सहित पद पाठनम॑: । स॒नि॒स्र॒स॒ऽअ॒क्षेभ्य॑: । नम॑: । स॒म्ऽदे॒श्ये᳡भ्य: । नम॑: । क्षेत्र॑स्य । पत॑ये । वी॒रुत् । क्षे॒त्रि॒य॒ऽनाश॑नी । अप॑ । क्षे॒त्रि॒यम् । उ॒च्छ॒तु॒ ॥८.५॥
स्वर रहित मन्त्र
नमः सनिस्रसाक्षेभ्यो नमः संदेश्येभ्यः। नमः क्षेत्रस्य पतये वीरुत्क्षेत्रियनाशन्यप क्षेत्रियमुच्छतु ॥
स्वर रहित पद पाठनम: । सनिस्रसऽअक्षेभ्य: । नम: । सम्ऽदेश्येभ्य: । नम: । क्षेत्रस्य । पतये । वीरुत् । क्षेत्रियऽनाशनी । अप । क्षेत्रियम् । उच्छतु ॥८.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
विषय - सनिस्त्रसाक्ष, सन्देश्य, क्षेत्रपति
पदार्थ -
१. (सनिस्त्रसाक्षेभ्यः) = [संस्-Togo. अक्ष-Axle-pole या कार] खुब गतिशील अक्षदण्ड या गतिशील गाड़ियों के लिए, जिनमें कृषि से उत्पन्न सामान को इधर-उधर ले-जाते हैं, (नमः) = नमस्कार हो । (सन्देश्येभ्य:) = इन अन्नों के सन्देशवाहकों के लिए-इन औषध-द्रव्यों के गुणों का प्रचार करनेवालों के लिए (नम:) = नमस्कार हो। (क्षेत्रस्य पतये) = क्षेत्र के पति के लिए, जो इन ओषधियों को उत्पन्न करता है, (नमः) = नमस्कार हो। २. इसप्रकार उत्पन्न की गई, यथास्थान पहुँचाई गई और जिनके गुणों का ज्ञान दिया गया है, वह (क्षेत्रियनाशनी) = क्षेत्रिय रोग को नष्ट करनेवाली (वीरुत्) = लता (क्षेत्रियम्) = क्षेत्रियरोग को (अप उच्छतु) = नष्ट करनेवाली हो।
भावार्थ -
क्षेत्रपति को उचित आदर देना है, उसकी गाड़ियों को ठीक रखना है। औषध द्रव्यों के गुणों का सन्देश देनेवालों के लिए भी उचित आदर हो।
विशेष -
सूक्त के आरम्भ में क्षेत्रिय रोगों को दूर करने के लिए सूर्य-चन्द्र के सम्पर्क में रहने का विधान है [१]। तीसरे मन्त्र में अर्जुनवृक्ष, यवतुषु तथा तिलपिजी को क्षेत्रिय रोग का नाशक बताया है। अगले सूक्त में ग्राही-गठिया को दूर करने के लिए दशवृक्ष का उल्लेख है।