अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - विराट्प्रस्तारपङ्क्तिः
सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
दश॑वृक्ष मु॒ञ्चेमं रक्ष॑सो॒ ग्राह्या॒ अधि॒ यैनं॑ ज॒ग्राह॒ पर्व॑सु। अथो॑ एनं वनस्पते जी॒वानां॑ लो॒कमुन्न॑य ॥
स्वर सहित पद पाठदश॑ऽवृक्ष । मु॒ञ्च । इ॒मम् । रक्ष॑स: । ग्राह्या॑: । अधि॑ । या । ए॒न॒म्। ज॒ग्राह॑ । पर्व॑ऽसु । अथो॒ इति॑ । ए॒न॒म् । व॒न॒स्प॒ते॒ । जी॒वाना॑म् । लो॒कम् । उत् । न॒य॒ ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
दशवृक्ष मुञ्चेमं रक्षसो ग्राह्या अधि यैनं जग्राह पर्वसु। अथो एनं वनस्पते जीवानां लोकमुन्नय ॥
स्वर रहित पद पाठदशऽवृक्ष । मुञ्च । इमम् । रक्षस: । ग्राह्या: । अधि । या । एनम्। जग्राह । पर्वऽसु । अथो इति । एनम् । वनस्पते । जीवानाम् । लोकम् । उत् । नय ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
विषय - सन्धिवात-चिकित्सा
पदार्थ -
१. हे (दशवृक्ष) = दशवृक्षों के मेल से बनाये जानेवाले 'दशमूल' नामक औषध ! (इमम्) = इस पुरुष को (रक्षस:) = इस अत्यन्त राक्षसी-सब रमणों-आनन्दों का क्षय करनेवाली-(ग्राह्या:) = अङ्गों को जकड़ लेनेवाली ग्राही [गठिया] नामक बीमारी से (अधिमुञ्च) = मुक्त करो, (या) = जो बीमारी (एनम्) = इसे (पर्वसु जग्राह) = पों में जोड़ों में पकड़े हुए हैं। २. (अथ उ) = और अब इसे रोगमुक्त करके हे (वनस्पते) = शरीर का रक्षण करनेवाली औषध! तू (एनम्) = इसे (जीवानां लोकम्) = जीवित पुरुषों के लोक में (उन्नय) = उत्कर्षेण प्राप्त करा। रोगग्रस्त होकर यह इधर-उधर जाने में असमर्थ हो गया था। इसे रोगमुक्त करके समाज में फिर से ठीक विचरण करनेवाला बना दो।
भावार्थ -
दशवृक्षों के मूल से उत्पन्न 'दशमूल' औषध संधिवात को दूर करके हमें समाज में आने-जाने के योग्य बना दे।
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