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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 4
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    दे॒वास्ते॑ ची॒तिम॑विदन्ब्र॒ह्माण॑ उ॒त वी॒रुधः॑। ची॒तिं ते॒ विश्वे॑ दे॒वा अवि॑द॒न्भूम्या॒मधि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वा: । ते॒ । ची॒तिम् । अ॒वि॒द॒न् । ब्र॒ह्माण॑: । उ॒त । वी॒रुध॑: । ची॒तिम् । ते॒ । विश्वे॑ । दे॒वा: । अवि॑दन् । भूम्या॑म् । अधि॑ ॥९.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवास्ते चीतिमविदन्ब्रह्माण उत वीरुधः। चीतिं ते विश्वे देवा अविदन्भूम्यामधि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवा: । ते । चीतिम् । अविदन् । ब्रह्माण: । उत । वीरुध: । चीतिम् । ते । विश्वे । देवा: । अविदन् । भूम्याम् । अधि ॥९.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    १. (देवा:) = सूर्य-चन्द्रादि देव (ते) = तेरे (चीतिम्) = संवरण को [चीव-ति-संवरण] (अविदन्) = जानते हैं, अर्थात् इन देवों के सम्पर्क में रहने से यह ग्राहीरोग नष्ट हो जाता है। 'चीति' शब्द "चिति' के स्थान में प्रयुक्त मानकर यह अर्थ भी किया जा सकता है कि ये देव तेरी अन्त्येष्टि की चिता [funeral pyre] को जानते हैं। इसीप्रकार (ब्रह्माण:) = ज्ञानी वैद्य (उत) = और (वीरुधः) = रोगनाशक लताएँ तेरी चिति को जानते हैं, अर्थात् तेरा नाश करने में समर्थ हैं। २. (भूम्याम् अधि) = इस पृथिवी पर (विश्वेदेवा:) = सब ज्ञानी पुरुष (ते चीतिम्) = तेरे विनाश को (अविदन्) = जानते हैं, तेरे नाश के उपाय को जानते हुए वे तुझे नष्ट करते हैं।

    भावार्थ -

    सूर्यादि देव, ज्ञानी वैद्य व कई लताएँ इस ग्राहीरोग को नष्ट करती हैं।

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