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अथर्ववेद > काण्ड 2 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
    सूक्त - भृग्वङ्गिराः देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम् छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त

    अधी॑ती॒रध्य॑गाद॒यमधि॑ जीवपु॒रा अ॑गन्। श॒तं ह्य॑स्य भि॒षजः॑ स॒हस्र॑मु॒त वी॒रुधः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ऽइती: । अधि॑ । अ॒गा॒त् । अ॒यम् । अधि॑ । जी॒व॒ऽपु॒रा: । अ॒ग॒त् । श॒तम् । हि । अ॒स्य॒ । भि॒षज॑: । स॒हस्र॑म् । उ॒त । वी॒रुध॑: ॥९.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधीतीरध्यगादयमधि जीवपुरा अगन्। शतं ह्यस्य भिषजः सहस्रमुत वीरुधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधिऽइती: । अधि । अगात् । अयम् । अधि । जीवऽपुरा: । अगत् । शतम् । हि । अस्य । भिषज: । सहस्रम् । उत । वीरुध: ॥९.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 3

    पदार्थ -

    १. (हि) = निश्चय से (अस्य) = इस ग्राहीरोग के (शतं भिषज:) = सैकड़ों वैद्य हैं (उत) = और (सहस्त्रम्) = हजारों (वीरुधः) = [विरुन्धन्ति विनाशयन्ति रोगान] रोगनाशक औषध है, अर्थात् यह ग्राहीरोग ऐसा भयंकर व डरने योग्य नहीं। (अयम्) = यह व्यक्ति स्वस्थ होकर (अधीति:) = अध्ययन करने योग्य सब वस्तुओं का (अध्यगात्) = स्मरण करने लगा है और (जीवपुरा:) = जीवितों के नगरों में (अधि अगन्) = आने-जाने लगा है, अर्थात् इसके सब व्यवहार साधारणतया ठीक से होने लगे हैं। २. रोग की अवस्था में व्याकुलता के कारण यह कुछ भी नहीं कर पा रहा था। अब इसका मस्तिष्क ब शरीर दोनों ठीक से कार्य करने लगे हैं। मस्तिक के ठीक हो जाने के कारण यह ठीक से पढ़ने-लिखने लगा है और शरीर के स्वस्थ हो जाने से यह नगरों में आने-जाने लगा हैं।

    भावार्थ -

    ग्राहीरोग के औषधों व चिकित्सकों की कमी नहीं। यह रोगी ठीक होकर मस्तिष्क व शरीर से ठीक रूप में कार्यों को करने लगा हैं।

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