अथर्ववेद - काण्ड 2/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
सूक्त - भृग्वङ्गिराः
देवता - वनस्पतिः, यक्ष्मनाशनम्
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दीर्घायु प्राप्ति सूक्त
यश्च॒कार॒ स निष्क॑र॒त्स ए॒व सुभि॑षक्तमः। स ए॒व तुभ्यं॑ भेष॒जानि॑ कृ॒णव॑द्भि॒षजा॒ शुचिः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । च॒कार॑ । स: । नि: । क॒र॒त् । स: । ए॒व । सुभि॑षक्ऽतम: । स: । ए॒व । तुभ्य॑म् । भे॒ष॒जानि॑ । कृ॒णव॑त् । भि॒षजा॑ । शुचि॑: ॥९.५॥
स्वर रहित मन्त्र
यश्चकार स निष्करत्स एव सुभिषक्तमः। स एव तुभ्यं भेषजानि कृणवद्भिषजा शुचिः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । चकार । स: । नि: । करत् । स: । एव । सुभिषक्ऽतम: । स: । एव । तुभ्यम् । भेषजानि । कृणवत् । भिषजा । शुचि: ॥९.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 2; सूक्त » 9; मन्त्र » 5
विषय - 'सर्वमहान् वैद्य' प्रभु
पदार्थ -
१. (यः चकार) = जो प्रभु इस संसार को बनाते हैं और इसमें जीवों को कर्मानुसार दण्ड देते हुए ग्राही आदि रोगों को भी उत्पन्न करते हैं, (सः निष्करत्) = वे प्रभु ही रोग को दूर भी करते हैं। प्रभुकृपा से ही रोगों का विनाश हुआ करता है। (सः एव) = वे प्रभु ही (सु-भिषक्तमः) = सर्वमहान् वैद्य हैं। (भिषक्तमत्वा भिषजां शणोमि) = [ऋ०२.३३.४] २. (सः एव) = वे प्रभु ही (तुभ्यम्) = तेरे लिए (भिषजा) = वैद्यों के द्वारा (भेषजानि कृण्वत्) = औषधों को करता है। वैद्य निमित्त बनता है, चिकित्सक तो प्रभु ही हैं। वे प्रभु ही रोगमुक्त करनेवाले हैं। रोगरहित करनेवाले प्रभु (शुचि:) = हमें निर्मल शरीर व मन के देनेवाले हैं। वे हमारे शरीरों व मनों का शोधन करते हैं।
भावार्थ -
प्रभु ही सर्वमहान् वैद्य हैं। वैद्य को माध्यम बनाकर प्रभु ही हमें रोगमुक्ति व शुचिता प्रदान करते हैं।
विशेष -
विशेष-इस सूक्त में मुख्यरूप से सन्धिवात की चिकित्सा का उल्लेख हुआ है। इस प्रसंग में 'दशवृक्ष' का उल्लेख प्रथम मन्त्र में है [१]। अन्तिम मन्त्र में प्रभु-स्मरण करते हुए उत्तम वैद्य के परामर्श से रोगनाशक वीरुधों के प्रयोग का विधान है [५]। अगले सूक्त में भी शरीर व मानस व्याधियों को दूर करने का प्रसङ्ग है -