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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 1

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 1/ मन्त्र 2
    सूक्त - गौतमः देवता - मरुद्गणः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१

    मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मरु॑त: । यस्य॑ । हि । क्षय॑ । पा॒थ । दि॒व: । वि॒ऽम॒ह॒स॒: । स: । सु॒ऽगो॒पात॑म: । जन॑: ॥१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः। स सुगोपातमो जनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुत: । यस्य । हि । क्षय । पाथ । दिव: । विऽमहस: । स: । सुऽगोपातम: । जन: ॥१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 1; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. हे (मरुत:) = प्राणो! आप (हि) = निश्चय से (यस्य क्षये) = जिसके शरीररूप गृह में [क्षि निवासे] (पाथा) = सोम का रक्षण करते हो, वहाँ आप (दिव:) = प्रकाशमय होते हो-उस साधक के जीवन को प्रकाशमय बनाते हो और (विमहसः) = उसे विशिष्ट तेजवाला करते हो। २. (स:) = वह दीप्ति व तेज प्राप्त करनेवाला (जन:) = मनुष्य (सुगोपातम:) = अतिशयेन उत्तम रक्षक कहलाता है।

    भावार्थ - प्राणसाधना द्वारा हम शरीर में सोम का रक्षण करें। यह साधना सोम-रक्षण द्वारा हमें दीप्ति व तेज प्राप्त कराएगी। हम 'सु-गोपा-तम' कहलाएँगे। यह दीसिवाला तेजस्वी पुरुष विशिष्ट रूपवाला होने से विरूप' कहलाता है। यह कहता है कि -

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