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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 100

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 100/ मन्त्र 2
    सूक्त - नृमेधः देवता - इन्द्रः छन्दः - उष्णिक् सूक्तम् - सूक्त-१००

    वार्ण त्वा॑ य॒व्याभि॒र्वर्ध॑न्ति शूर॒ ब्रह्मा॑णि। वा॑वृ॒ध्वांसं॑ चिदद्रिवो दि॒वेदि॑वे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वा: । न । त्वा॒ । य॒व्याभि॑: । वर्ध॑न्ति । शू॒र॒ । ब्रह्मा॑णि । व॒वृध्वांस॑म् । चि॒त् । आ॒द्रि॒ऽव॒: ॥ दि॒वेऽदि॑वे ॥१००.॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वार्ण त्वा यव्याभिर्वर्धन्ति शूर ब्रह्माणि। वावृध्वांसं चिदद्रिवो दिवेदिवे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वा: । न । त्वा । यव्याभि: । वर्धन्ति । शूर । ब्रह्माणि । ववृध्वांसम् । चित् । आद्रिऽव: ॥ दिवेऽदिवे ॥१००.॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 100; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १.(न) = जैसे (यव्याभि:) = यवों के क्षेत्रों के उद्देश्य से (वा:) -जलों को (वर्धन्ति) = बढ़ाते हैं। जलों के द्वारा ही यवों ने बढ़ना होता है। एवं, हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो! (यव्याभिः) = [यु मिश्रणामिश्रणयोः] बुराइयों को पृथक करने के उद्देश्य से (ब्रह्माणि) = हमारी स्तुतिवाणियों (त्वा वर्धन्ति) = आपको बढ़ाती हैं। आपका स्तवन ही हमें बुराइयों से बचाता है। २. हे (अद्रिवः) = आदरणीय व वज्रहस्त प्रभो! (वावृध्वांसं चित्) = सब दृष्टिकोणों से बढ़े हुए भी आपको (दिवे-दिवे) = प्रतिदिन हमारी स्तुति-वाणियाँ बढ़ती हैं। इन स्तुति-वाणियों के द्वारा ही हम आपके प्रकाश को अपने अन्दर अधिक और अधिक बढ़ा पाते हैं।

    भावार्थ - स्तवन के द्वारा प्रभु के प्रकाश का अपने अन्दर वर्धन करते हुए हम बुराइयों को अपने जीवन से दूर करें।

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