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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 100/ मन्त्र 3
यु॒ञ्जन्ति॒ हरी॑ इषि॒रस्य॒ गाथ॑यो॒रौ रथ॑ उ॒रुयु॑गे। इ॑न्द्र॒वाहा॑ वचो॒युजा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयु॒ञ्जन्ति । हरी॒ इति॑ । इ॒षि॒रस्य॑ । गाथ॑या । उ॒रौ । रथे॑ । उ॒रुऽयु॑गे ॥ इ॒न्द्र॒ऽवाहा॑ । व॒च॒:ऽयुजा॑ ॥१००.३॥
स्वर रहित मन्त्र
युञ्जन्ति हरी इषिरस्य गाथयोरौ रथ उरुयुगे। इन्द्रवाहा वचोयुजा ॥
स्वर रहित पद पाठयुञ्जन्ति । हरी इति । इषिरस्य । गाथया । उरौ । रथे । उरुऽयुगे ॥ इन्द्रऽवाहा । वच:ऽयुजा ॥१००.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 100; मन्त्र » 3
विषय - १.(इषिरस्य) = उस सर्वप्रेरक-सबको गति देनेवाले प्रभु की (गाथया) = गुणगाथा के साथ (हरी) = इन्द्रियाश्वों को (उरौ रथे) = इस विशाल शरीर-रथ में (युञ्जन्ति) = जोतते हैं। उस शरीर-रथ में इन्हें जोतते हैं, जोकि (उरुयुगे) = विशाल युगवाला है। मन ही युग है। यह आत्मा व इन्द्रियों को जोड़नेवाला है। २. ये इन्द्रियाश्व (इन्द्रवाहा) = जितेन्द्रिय पुरुष को लक्ष्य की ओर वहन करनेवाले हैं-इस जितेन्द्रिय पुरुष को ये प्रभु के समीप प्राप्त कराते हैं। (वचोयुजा) = वे इन्द्रियाश्व वेदवाणी के अनुसार कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले हैं।
पदार्थ -
भावार्थ-प्रेरक प्रभु का गुणगान करनेवाला व्यक्ति इन्द्रियाश्वों को शरीर-रथ में वेदवाणी के निर्देश के अनुसार युक्त करके प्रभुरूप लक्ष्य की ओर बढ़ता है।
भावार्थ - यह प्रभुरूप लक्ष्य की ओर बढ़नेवाला व्यक्ति 'मेध्यातिथि' बनता है। प्रभु को प्राप्त करके पवित्र प्रभु [मेध्य] का अतिथि होता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है
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