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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 101/ मन्त्र 1
अ॒ग्निं दू॒तं वृ॑णीमहे॒ होता॑रं वि॒श्ववे॑दसम्। अ॒स्य य॒ज्ञस्य॑ सु॒क्रतु॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम् । दू॒तम् । वृणी॒म॒हे॒ । होता॑रम् । वि॒श्वऽवे॑दसम् ॥ अ॒स्य । य॒ज्ञस्य॑ । सु॒क्रतु॑म् ॥१०१.१॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निं दूतं वृणीमहे होतारं विश्ववेदसम्। अस्य यज्ञस्य सुक्रतुम् ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निम् । दूतम् । वृणीमहे । होतारम् । विश्वऽवेदसम् ॥ अस्य । यज्ञस्य । सुक्रतुम् ॥१०१.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 1
विषय - 'दूत होता व विश्ववेदस्' अग्नि का वरण
पदार्थ -
१. उपासक कहता है कि हम तो (अग्निम्) = उस सब उन्नतियों के साधक प्रभु का ही (वृणीमहे) = वरण करते हैं। वे प्रभु (दूतम्) [दु उपतापे] = हम भक्तों को तपस्या की अग्नि में तपाकर परिपक्व जीवनवाला करते हैं। वह तपस्या की अग्नि ही हमारे जीवनों को शुद्ध बनाती है। २. (होतारम्) = वे प्रभु हमारे लिए उन्नति के साधनभूत सब पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। वे प्रभुही तो (विश्ववेदसम्) = सम्पूर्ण धनों के स्वामी हैं। इन धनों के द्वारा (अस्य यज्ञस्य) = हमारे इस जीवन यज्ञ के (सुक्रतुम्) = उत्तम कर्ता हैं। प्रभु-कृपा से ही हमारा जीवन-यज्ञ चलता है। प्रभु-कृपा के अभाव में यह जीवन यज्ञमय नहीं रहता।
भावार्थ - प्रभु 'अग्नि-दूत-होता व विश्ववेदस्' हैं। वे हमारे जीवन-यज्ञ के सुक्रतु हैं। हम प्रभु का ही वरण करते हैं। प्रभु-बरण से आवश्यक प्राकृतिक भोग तो प्राप्त हो ही जाते हैं साथ ही हम प्रकृति में फँसने से होनेवाली दुर्गति से बच जाते हैं।
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