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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 101

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 101/ मन्त्र 3
    सूक्त - मेध्यातिथिः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०१

    अग्ने॑ दे॒वाँ इ॒हा व॑ह जज्ञा॒नो वृ॒क्तब॑र्हिषे। असि॒ होता॑ न॒ ईड्यः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । दे॒वान् । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । ज॒ज्ञा॒न: । वृ॒क्तऽब॑र्हिषे ॥ असि॑ । होता॑ । न॒: । ईड्य॑: ॥१०१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने देवाँ इहा वह जज्ञानो वृक्तबर्हिषे। असि होता न ईड्यः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । देवान् । इह । आ । वह । जज्ञान: । वृक्तऽबर्हिषे ॥ असि । होता । न: । ईड्य: ॥१०१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 101; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (अग्ने) = हमारी सम्पूर्ण अग्रगति के साधक प्रभो! (इह) = इस जीवन में (वृक्तबर्हिषे) = जिसने अपने हृदय को वासनाओं से वर्जित [वृक्त] किया है, उस पवित्र हृदय पुरुष के लिए देवान सब दिव्यगुणों को (आवह) = प्राप्त कराइए। हे प्रभो! (जज्ञान:) = प्रादुर्भूत होते हुए आप हमारे जीवनों में दिव्यगुणों को उत्पन्न करते ही हैं। 'महादेव' के आने पर क्या 'देव' न आएंगे। २. हे प्रभो! आप ही (होता) = सब दिव्यगुणों को पुकारनेवाले हैं अथवा सब अच्छाइयों को आप ही देनेवाले (असि) = हैं, अतः आप ही (न:) = हमारे लिए (ईडयः) = स्तुति के योग्य हैं। आपका यह स्तवन हमारे सामने भी उन दिव्यगुणों की प्रासिरूप लक्ष्य को उपस्थित करता है।

    भावार्थ - हे प्रभो! हमारे हृदयों में प्रादुर्भूत होते हुए आप सब दिव्यगुणों को प्रादुर्भूत करते हैं। आप ही हमारे लिए सब अच्छाइयों को प्राप्त कराते हैं। आप ही स्तुति के योग्य हैं। यह प्रभु का स्तोता किसी के साथ द्वेष न करता हुआ सभी का मित्र बनता है। यह “विश्वामित्र' ही अगले सूक्त का ऋषि है -

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