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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 102

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 102/ मन्त्र 2
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-१०२

    वृषो॑ अ॒ग्निः समि॑ध्य॒तेऽश्वो॒ न दे॑व॒वाह॑नः। तं ह॒विष्म॑न्त ईडते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वृषो॒ इति॑ । अ॒ग्नि: । सम् । इ॒ध्य॒ते॒ । अश्व॑: । न । दे॒व॒ऽवाह॑न: ॥ तम् । ह॒विष्म॑न्त: । ई॒ल॒ते॒ ॥१०२.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वृषो अग्निः समिध्यतेऽश्वो न देववाहनः। तं हविष्मन्त ईडते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वृषो इति । अग्नि: । सम् । इध्यते । अश्व: । न । देवऽवाहन: ॥ तम् । हविष्मन्त: । ईलते ॥१०२.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 102; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (वृषा) = शक्तिशाली (अग्नि:) = अग्रणी प्रभु (उ) = ही (समिध्यते) = उपासकों से हृदयों में समिद्ध किये जाते हैं। वे प्रभु (अश्वः न) = अश्व के समान हैं। जैसे एक घोड़ा अपने सवार को लक्ष्यस्थान पर पहुँचाता है, उसी प्रकार प्रभ अपने उपासकों को लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं। (देववाहनः) = देवों से ये प्रभु धारण किये जाते हैं। देववृत्ति के पुरुष ही हृदयों में प्रभु का दर्शन करते हैं। २. (तम्) = उस प्रभु को (हविष्मन्त:) = प्रशस्त हविवाले पुरुष ही (ईडते) = पूजते हैं। प्रभु का पूजन हवि से ही होता है। [हविषा विधेम] दानपूर्वक अदन ही प्रभु-पूजन है। यही यज्ञों के द्वारा यज्ञरूप प्रभु का उपासन है।

    भावार्थ - यज्ञशील बनकर हम प्रभु का पूजन करते हैं। प्रभु हमें शक्तिशाली व उन्नत बनाकर लक्ष्यस्थान पर पहुँचाते हैं।

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