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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 102/ मन्त्र 3
वृष॑णं त्वा व॒यं वृ॑ष॒न्वृष॑णः॒ समि॑धीमहि। अग्ने॒ दीद्य॑तं बृ॒हत् ॥
स्वर सहित पद पाठवृष॑णम् । त्वा॒ । व॒यम् । वृ॒ष॒न् । वृष॑ण: । सम् । इ॒धी॒म॒हि ॥ अग्ने॑ । दीद्य॑तम् । बृ॒हत् ॥१०२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
वृषणं त्वा वयं वृषन्वृषणः समिधीमहि। अग्ने दीद्यतं बृहत् ॥
स्वर रहित पद पाठवृषणम् । त्वा । वयम् । वृषन् । वृषण: । सम् । इधीमहि ॥ अग्ने । दीद्यतम् । बृहत् ॥१०२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 102; मन्त्र » 3
विषय - वृषणं, दीद्यतम्, बृहत्
पदार्थ -
१.हे (वृषन्) = शक्तिशाली (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! (वृषणं त्वा) = शक्तिशाली आपको (वयम्) = हम (वृषण:) = शक्तिशाली बनते हुए (समिधीमहि) = अपने हृदयों में समिद्ध करते हैं। प्रभु-प्राप्ति का मार्ग यही है कि हम प्रभु-जैसे बनें। प्रभु 'वृषा' हैं-हम भी (वृषा) = शक्तिशाली बनें। २. वे प्रभु (दीद्यतम्) = देदीप्यमान हैं, (बृहत्) = महान् हैं। हम भी मस्तिष्क में ज्ञान-ज्योति से दीप्त बनने का प्रयत्न करें तथा हृदयों में महान-विशाल बनें।
भावार्थ - प्रभु की उपासना करते हुए हम भी प्रभु की भाँति शक्तिशाली, ज्ञानी व विशाल हृदय' बनें। ज्ञानदीप्तिवाला प्रभु का यह उपासक 'सुदीति' बनता है, अपने अन्दर शक्ति का खूब ही सेचन करता हुआ 'पुरुमीढ' होता है। ये 'सुदीति व पुरुमीढ' ही अगले सूक्त में प्रथम मन्त्र के ऋषि हैं। अत्यन्त तेजस्वी बननेवाला 'भर्ग'२-३ मन्त्र का ऋषि है -
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