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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 103

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 103/ मन्त्र 1
    सूक्त - सुदीतिपुरुमीढौ देवता - अग्निः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-१०३

    अ॒ग्निमी॑डि॒ष्वाव॑से॒ गाथा॑भिः शी॒रशो॑चिषम्। अ॒ग्निं रा॒ये पु॑रुमीढ श्रु॒तं नरो॒ऽग्निं सु॑दी॒तये॑ छ॒र्दिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निम् । ई॒लि॒ष्व॒ । अव॑से । गाथा॑भि: । शी॒रऽशो॑चिषम् ॥ अ॒ग्निम् । रा॒ये । पु॒रु॒ऽमी॒ल्ह॒ । श्रु॒तम् । नर॑: । अ॒ग्निम् । सु॒ऽदी॒तये॑ । छ॒र्दि: ॥१०३.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निमीडिष्वावसे गाथाभिः शीरशोचिषम्। अग्निं राये पुरुमीढ श्रुतं नरोऽग्निं सुदीतये छर्दिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निम् । ईलिष्व । अवसे । गाथाभि: । शीरऽशोचिषम् ॥ अग्निम् । राये । पुरुऽमील्ह । श्रुतम् । नर: । अग्निम् । सुऽदीतये । छर्दि: ॥१०३.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 103; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (अग्निम्) = उस अग्रणी प्रभु को (अवसे) = रक्षण के लिए (गाथाभि:) = स्तुतिवाणियों के द्वारा (ईडिष्य) = उपासित कर। हे (पुरुमीढ) = अपने में शक्ति का खूब ही सेचन करनेवाले उपासक! तू (राये) = ऐश्वर्यप्राप्ति के लिए (शीरशोचिषम्) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाली ज्ञानदीसिवाले (श्रुतम्) = उस प्रसिद्ध (अग्निम्) = अग्रणी प्रभु को उपासित कर। २. हे (नर) = मनुष्यो! (अग्नि:) = ये अग्रणी प्रभु (सुदीतये) = उत्तम दीप्तिवाले नर के लिए खूब ज्ञान प्राप्त करनेवाले मनुष्य के लिए (छर्दिः) = शरणस्थान व गृह हैं। इस सुदीति को प्रभु शरण देते हैं।

    भावार्थ - हम स्तुतिवाणियों से प्रभु का अर्चन करें। प्रभु ही हमें ऐश्वर्य प्राप्त कराते हैं। प्रभु ही ज्ञानदीप्ति प्राप्त करनेवालों के लिए शरणस्थान होते हैं।

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