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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 103/ मन्त्र 2
अग्न॒ आ या॑ह्य॒ग्निभि॒र्होता॑रं त्वा वृणीमहे। आ त्वाम॑नक्तु॒ प्रय॑ता ह॒विष्म॑ती॒ यजि॑ष्ठं ब॒र्हिरा॒सदे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअग्ने॑ । आ । या॒हि॒ । अ॒ग्निऽभि॑: । होता॑रम् । त्वा॒ । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥ आ । त्वाम् । अ॒न॒क्तु॒ । प्रऽय॑ता । ह॒विष्म॑ती । वजि॑ष्ठम् । ब॒र्हि:। आ॒ऽसदे॑ ॥१०३.२॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्न आ याह्यग्निभिर्होतारं त्वा वृणीमहे। आ त्वामनक्तु प्रयता हविष्मती यजिष्ठं बर्हिरासदे ॥
स्वर रहित पद पाठअग्ने । आ । याहि । अग्निऽभि: । होतारम् । त्वा । वृणीमहे ॥ आ । त्वाम् । अनक्तु । प्रऽयता । हविष्मती । वजिष्ठम् । बर्हि:। आऽसदे ॥१०३.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 103; मन्त्र » 2
विषय - अग्नियों के साथ 'अग्नि'
पदार्थ -
१.हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (अग्निभिः) = उत्तम मातारूप दक्षिणाग्नि, उत्तम पितारूप गाईपत्याग्नि तथा उत्तम आचार्यरूप (आह्वानीय) = अग्नि के साथ (आयाहि) = हमें प्राप्त होइए। (होतारम्) = सब-कुछ देनेवाले (त्वा) = आपको (वृणीमहे) = हम वरते हैं। आपकी प्राप्ति से सब-कुछ प्रास हो ही जाता है। २. (यजिष्ठम्) = अतिशयेन पूजनीय (त्वाम्) = आपको (बर्हिः आसदे) = हदयासन पर बिठाने के लिए हविष्मती-हवि से युक्त यह प्रयता-पवित्र वेदवाणी अनक्तु हमारे जीवनों में प्राप्त कराए। यज्ञ व ज्ञान हमें प्रभु के समीप प्राप्त करानेवाले हों।
भावार्थ - उत्तम माता-पिता व आचार्य को प्राप्त करके, ज्ञान को प्राप्त करते हुए, हम प्रभु के समीप पहुँचते हैं। यज्ञों से युक्त पवित्र वेदवाणी हमें प्रभु की समीपता में प्राप्त कराती है।
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